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बस राजनीति के लिए है लोकपाल मुद्दा!

Mithilesh's Pen
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तब हममें से कई लोग उस अन्ना आंदोलन के समर्थक थे, जिसका टैगलाइन बना था ‘जनलोकपाल’! आज जब सोचता हूँ तब यह लगता है कि तब के समय में कांग्रेसी शासन अत्यधिक अहंकारी और निरंकुश होने के साथ-साथ भ्रष्टाचार का वट-वृक्ष बन गया था और लोकपाल का योगदान इतना तो है ही कि इसने जनता को अपनी ताकत याद दिलाई तो राजनीतिक दलों को उनकी ‘औकात’! हालाँकि, जब चर्चा लोकपाल की हो रही है, तब काफी कुछ सोचने के बाद भी यह तकनीकी और प्रशासनिक मुद्दे से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा ही लग रहा है, जिसकी जरूरत सिर्फ और सिर्फ राजनेताओं को, सुविधानुसार इसे उठाने और दबाने की सहूलियत भर है. हमारे देश में कुछेक बड़े आंदोलन, जो अंततः मजाक बन कर रह गए, उनमें जनलोकपाल के लिए किये गए आंदोलन का नाम सबसे ऊपर रखा जा सकता है, जिसने लम्बी दूरी की मिसाइल बनने के बजाय ‘सत्ता परिवर्तन’ के लक्ष्य तक ही सीमित रह गया. और सबसे बड़ी बिडम्बना यह कि जो लोग ‘जनलोकपाल’ का झंडा लेकर सबसे आगे चल रहे थे, वह कुत्ते-बिल्ली की तरह सड़कों पर लड़े और जंगल के कानून की तरह, जो जीत गया, वह शासक बन गया! अब हालिया दिनों में इस आंदोलन रुपी काठ की हांडी को फिर से आग पर चढाने की कोशिश की जा रही है और बिडंबना देखिये कि यह फिर से अच्छी खासी चर्चित भी हो चुकी है! जब जनलोकपाल के लिए अन्ना का आंदोलन शुरू हुआ तबसे अरविन्द केजरीवाल दो-दो बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं, मगर उन्हें इसकी याद अपनी सुविधानुसार ही आती है.  anna-movement-Hindi article on Lokpal, jokepal and politics beyond all

अब इस पूरे क्रियाकलाप को देखें तो साफ़ है कि यह सारी उहापोह सिर्फ और सिर्फ शोर मचाने के लिए की जा रही है. लोकपाल के मामले में वैसे भी शुरुआत से ही राजनीतिक तंत्र असहमत रहा है, जबकि प्रशासनिक तंत्र और सामाजिक संगठनों ने भी इसके तकनीकी पहलुओं को लेकर कुछ खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है. यह अलग बात है कि तत्कालीन कांग्रेसी केंद्र सरकार के एक के बाद एक घोटालों के खुलासों ने इस आंदोलन में हवा भरी और विरोधी खेमों को जनता का अपार समर्थन मिला, जिसने दिल्ली और नई दिल्ली दोनों में ‘जनलोकपालों’ को सत्ता में बिठा दिया! हालाँकि, जनलोकपाल नाम का सफर जहाँ से शुरू हुआ था, आज भी वहीं का वहीं है और सच में देखा जाय तो ‘गरीबी हटाओ’, ‘पूर्ण स्वराज्य’ जैसे नारों की अगली कड़ी भर बन कर रह गया है. कानूनों के सन्दर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी सर्वथा उपयुक्त है कि कानूनों को समाप्त किया जाना चाहिए, क्योंकि जितने ज्यादा कानून होंगे, उतनी ही उलझन और लालफीताशाही पनपेगी. केजरीवाल को यह समझना होगा कि लोकपाल जैसे मुद्दों पर राजनीति करके वह कुछ दिन तो टालमटोल कर लेंगे, किन्तु अंततः चुनावी कूड़ेदान में चले जायेंगे. इसलिए, जितनी रिसोर्सेस हैं, उसको एफिशिएंट करना और निगरानी रखना ही अच्छे प्रशासन के लक्षण हैं, न कि लोकपाल या जोकपाल बनाकर अर्थव्यवस्था पर जबरदस्ती का बोझ बढ़ाना! उम्मीद की जानी चाहिए कि परिपक्व होते लोकतंत्र में कानून बढ़ने के बजाय निगरानी तंत्र को बढ़ाया जाय और भ्रष्टाचार से निपटने की जिम्मेवारी खुद पार्टी के सुप्रीमों ही उठाएं. आखिर, कांग्रेस में सोनिया, भाजपा में मोदी और आम आदमी पार्टी में केजरीवाल से बड़ा लोकपाल कौन हो सकता है? अगर ये अपनी पार्टी को ही सुधार लें तो न तो तामझाम बढ़ेगा और न ही बढ़ेगा भ्रष्टाचार !!!

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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