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देशप्रेम और देशद्रोह पर बहस की दिशा

Mithilesh's Pen
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जिस भारत राष्ट्र के लिए सीमाओं पर खड़े सैनिक लड़ाइयों में तो जान देते ही हैं, वगैर लड़ाई लड़े भी उनकी जानें जा रही हों, अगर उसी देश में राष्ट्रद्रोह की बातें बड़े स्तर पर होने लगें तो फिर सोचना जरूरी हो जाता है कि आखिर देश किस दिशा में जा रहा है. सियाचिन की बर्फ में दबे बाकी जवानों की जानें तो पहले ही निकल चुकी थीं, एक हनुमंथप्पा ने भी राष्ट्र को जगाकर अपने प्राण त्याग दिए. लांस नायक हनुमंतप्पा का दिल्ली में सेना के आर एंड आर अस्पताल में निधन हो गया. उनके शरीर के कई अंग काम नहीं कर रहे थे, उनके दोनों फेफड़ों में निमोनिया के लक्षण पाए गए थे, तथा उनके दिमाग तक ऑक्सीजन नहीं पहुंच रहा थी. हनुमंतप्पा के निधन पर पीएम मोदी सहित कई गणमान्य लोगों ने दुख जताया और कहा कि वे हमें दुखी और टूटा हुआ छो़ड गए हैं. प्रधानमंत्री के अलावा रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर और कांग्रेस पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी ने भी इस दुखद घड़ी पर दुख जताया है. सवाल इससे कहीं आगे है और वह यह है कि एक तरफ देश के सैनिक हर स्थिति में जान देने को तैयार हैं और दे रहे हैं और उसी देश में कई लोग, कई राजनेता, कई छात्रों पर देशद्रोह का सीधा आरोप लग रहा है तो कइयों पर उसे संरक्षण देने का आरोप चस्पा है! क्या इसीलिए, हनुमंथप्पा जैसे जवान बर्फ में दबकर अपनी जान दे रहे हैं कि उनकी शहादत को भूलकर देशद्रोह पर हम चर्चा करें! क्या वाकई हमारे देश में यह बीमारी गंभीर रूप में फैलती चली जा रही है? इस बात में कोई सन्देह नहीं कि भारत एक विशाल देश है और यहाँ विभिन्न विचार, समुदाय, व्यवहार के लोग रहते हैं. निश्चित रूप से यह अन्याय ही है कि कोई एक विचार, दूसरों पर थोपा जाय, इस बात से भी इंकार नहीं है कि पुलिस-प्रशासन कई बार अपना गला छुड़ाने के लिए निर्दोष व्यक्तियों को फंसा देती है, मगर क्या इसका मतलब यह है कि ‘राष्ट्रद्रोह की परिभाषा’ भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लास में लांघ दिया जाय!

एक साथ दो ऐसी खबरें आयी हैं, जिनसे देशप्रेम और देशद्रोह की बात करना आवश्यक हो जाता है. पहली खबर है, मुंबई के 26/11 हमले के अभियुक्त डेविड हेडली की, जिसने दावा किया है कि साल 2004 में गुजरात में पुलिस एनकाउंटर में मारी गई इशरत जहां चरमपंथी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ी हुई थी. हेडली ने ये भी बताया कि इशरत मुजम्मिल नाम के लश्कर के चरमपंथी के साथ काम करती थी. गौरतलब है कि 15 जून 2004 को अहमदाबाद के पास हुई मुठभेड़ में 19 साल की इशरत जहां और तीन अन्य लोग मारे गए थे. उस समय गुजरात पुलिस ने ये कहा था कि इशरत और उनके तीन दोस्त तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने के इरादे से अहमदाबाद पहुंचे थे, जहां पुलिस के साथ मुठभेड़ में उनकी मौत हो गई थी. इस मामले पर तब बड़ा होहल्ला मचा था और जमकर राजनीति भी हुई थी, जिसमें ईशरत को किसी ने निर्दोष तो किसी ने अपनी बेटी बताया था. इस मामले की अहमदाबाद की मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत के फैसले को राज्य सरकार ने हाई कोर्ट में चुनौती दी और सीबीआई इस मामले की जाँच कर रही है. अब जब मुंबई हमले में मुख्य रोल निभाने वाला हेडली इस मामले में बयान दे चुका है तब जिन-जिन लोगों ने ईशरत को सपोर्ट दिया था, उनके मुंह पर ताले पड़े हुए हैं. सोशल मीडिया पर भी ये मुद्दा छाया रहा, जिसमें लोगों ने चुभने वाले ट्वीट किये, जैसे: एक यूजर ने लिखा “इशरत जहां ने एक बार फिर लोगों को मौक़ा दिया कि वो अपने अवॉर्ड वापस कर सकें.” तो दुसरे ट्वीट में  कहा गया कि “इशरत जहां के अधिकार के लिए चिंता करने वाले काश उन निर्दोष लोगों के लिए भी उतने ही चिंतित होते जो आतंकी घटनाओं में मारे जाते हैं.” हालाँकि, इन ट्वीट्स के बाद भी देशद्रोह के मामलों में राजनीतिक फायदा ढूंढने वालों को शायद ही कोई सबक मिले! इसी तरह की जो दूसरी खबर आयी, वह जेएनयू में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को लेकर है. अफज़ल गुरु की फांसी और उसको लेकर एक कार्यक्रम का आयोजन और कार्यक्रम में भारत विरोधी नारे लगने के कारण यह पूरा मामला सुर्ख़ियों में बना हुआ है.

गौरतलब है कि काफी पहले से जेएनयू में राष्ट्रद्रोहियों का गढ़ होने की बात कही जाती रही है, लेकिन इस बार पानी सर से ऊपर निकलने की बात सामने तब आयी, जब सोशल मीडिया में इस बात की तीखी आलोचना शुरू हो गयी. बुद्धिजीवियों का गढ़ कही जाने वाली जेएनयू में कुछ छात्रों ने संसद पर हमले के दोषी आतंकी अफजल गुरु की बरसी मनाई तो  इस मौके पर देश विरोधी नारे लगाए गए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपशब्द भी कहे गए. विरोध कर रहे छात्रों के गो बैक इंडिया, कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी, भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जैसे नारों ने पूरे कैंपस सहित देश भर में बवाल खड़ा कर दिया. मुश्किल यह है कि ऐसा कोई पहली बार नहीं है जब जेएनयू में यह घटना हुई हो. हाल ही में भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यन स्वामी ने अपने बयान में जेएनयू के स्टूडेंट्स और टीचर्स को नक्सली करार दिया और साफ़ तौर पर कहा कि जेएनयू में नक्सली, जेहादी और LTTE वाले रहते हैं. अब इन बातों से जो प्रश्न उपजता है, उसमें एक और प्रश्न अन्तर्निहित लगता है कि आखिर जब इतनी सारी जानकारियां जेएनयू के बारे में सबको हैं तो उस पर कार्रवाई में इतना बिलम्ब क्यों? क्या सच में राजनीति की सूली पर देशहित का भेंट चढ़ा दिया जाना चाहिए! अगर नहीं, तो सरकार के साथ तमाम राजनीतिक अमलों को इशरत जहाँ और जेएनयू के परिदृश्य में उपजे सवालों का जवाब खुद में ही ढूंढना चाहिए और देश को जवाब देना भी चाहिए, अन्यथा विश्वास की कड़ी से हम दूर ही बैठे रहेंगे! सवाल यह भी है कि अगर हम राष्ट्रप्रेम के नाम पर भी एकजुट में राष्ट्रद्रोहियों का विरोध नहीं कर सकेंगे तो हमें राष्ट्रीयता पर विचार करने की आवश्यकता जान पड़ती ही है. आतंकवाद और उसका विरोध नहीं कर सकेंगे तो यह हमारी मानसिक स्थिति पर तो प्रश्नचिन्ह उठाता ही है, साथ ही साथ हनुमंथप्पा जैसे राष्ट्रनायकों की शहादत का मजाक भी उड़ाता है! इससे भी आगे बढ़कर देखें तो हम आने वाली पीढ़ियों के सामने एक अँधेरी खाई ही खोद रहे हैं, जिसमें उनका गिरना स्वाभाविक ही होगा, क्योंकि वह खाई हम उनके सामने छोड़कर जा रहे हैं! बेहतर हो कि दुसरे मुद्दों पर हम खूब लड़ें, किन्तु राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रद्रोह के नाम पर कम से कम हमारे सूर एक से हों, एक सी आवाज निकले ‘जय हिन्द’, ‘वन्दे मातरम’!

मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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