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सम्मेलनों, दिवसों से काफी आगे है हिंदी

Mithilesh's Pen
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दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के सन्दर्भ में दो केंद्रीय मंत्रियों के बयान आये हैं जो अलग होने के बावजूद एक दिशा में ही दिखते हैं. पहले विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाषा पर जोर रहेगा न कि साहित्य पर. यह बयान कुछ हद तक कन्फ्यूज करने वाला था, क्योंकि भाषा और साहित्य एक दुसरे के पूरक ही माने जाते रहे हैं. इस बयान से उत्पन्न संदेह तब दूर हो जाता है, जब विदेश राज्यमंत्री और पूर्व जनरल वी.के.सिंह का बयान आता है. केंद्रीय मंत्री ने कहा, ‘पहले के नौ विश्व हिंदी सम्मेलनों में साहित्य और साहित्यकारों पर जोर होता था. लोग आते थे, लड़ते थे, आलोचना करते थे और वह खत्म हो जाता था. विदेश राज्यमंत्री यहीं नहीं रुके, आगे की परतें खोलते हुए उन्होंने नहले पर दहला मारा कि इस दौरान लेखक और साहित्यकार खाना खाने के लिए आते थे और शराब पीकर अपनी किताब का पाठ करते थे. अपने बयान में आगे जोड़ते हुए सिंह ने कहा कि इस बार के आयोजन में ‘वैसे लेखकों’ को निमंत्रण ही नहीं भेजा गया है. अब सुषमा स्वराज के बयान और जनरल वी.के.सिंह का बयान एक क्रम में हैं या नहीं, इसका फैसला हम सबके स्वविवेक के ऊपर ही छोड़ देना चाहिए, मगर मूल प्रश्न यह है कि ‘साहित्य’ और ‘साहित्यकारों’ के ऊपर इस हद तक की कड़ी और ‘जूतामार’ टिप्पणी करने की जरूरत क्यों पड़ी, वह भी तब जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 10 से 12 सितंबर तक 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें भारत और 27 अन्य देशों से लगभग 2,000 प्रतिनिधियों के हिस्सा लेने की संभावना है. इसका उत्तर हम आगे की पंक्तियों में ढूंढने का प्रयत्न करेंगे, इससे पहले वी.के. सिंह के बयान पर एक स्वनामधन्य साहित्यकार की प्रतिक्रिया बतानाVishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, 10th conference article, sushma swaraj, vk singh आवश्यक है. आपसी बातचीत में, उन साहित्यकार महाशय ने तुरंत वी.के.सिंह की जन्मकुंडली निकाल ली और उसमें तमाम दोषों को गिना बैठे! वह यहीं नहीं रुके, बल्कि ‘फौजियों’ के बारे में टिप्पणी कर उठे कि ‘इसीलिए सेना में रहे लोगों को किसी ‘बौद्धिक’ पद पर नहीं बिठाया जाना चाहिए. वह आगे न जाने क्या-क्या कहते कि हमने उन्हें टोक दिया कि ‘क्या पूर्व जनरल ने वाकई असत्य बात कही है?’ उन्होंने आग उगलते नेत्रों से मुझे देखा और चट कह उठे कि ‘तुम्हारे जैसे लेखकों की वजह से ही लेखक-बिरादरी पर कोई भी ऊँगली उठा देता है, और ऐसे बयानों को उत्साहित करता है.’ मैंने उन्हें तत्काल सफाई दी कि अभी तो हम दो चार लाइन लिख लेते हैं और मैं किसी साहित्यिक गुट में शामिल भी नहीं हूँ, न ही मुझे कोई हिंदी का जुगाड़ू अवार्ड प्राप्त हुआ है, साथ ही साथ मेरा सात – आठ साल का लेखकीय अनुभव भी आप गहराई वाले सुविज्ञों की तुलना में कुछ भी नहीं है, इसलिए हे सामाजिक दर्पण रुपी साहित्यकार महोदय! आपके इस आरोप के लायक मैं हूँ ही कहाँ? मेरा इतना कहना था कि मुंह बिजकाते वह तेजी से बाहर निकल गए. वैसे, उन जैसे अनेक महोदय आजकल नाराज दिख रहे हैं, जिनकी पीड़ा फेसबुक पर रुक-रुक कर निकल रही है कि आखिर उन जैसे महानतम साहित्यिक, सामाजिक, चारित्रिक, मानवीय गुणों के संवाहक, युवाओं को प्रेरित करने वाले मर्मज्ञों को विश्व हिंदी सम्मलेन में बुलाया क्यों नहीं गया?

खैर, उनके जैसी पीड़ा, बल्कि उनसे भी ज्यादे पीड़ा को हम युवा लेखकों से ज्यादा कौन समझता है भला, क्योंकि युवा ब्लॉगर्स के रूप में हिंदी की सेवा थोड़े ही होती है, यूट्यूब पर हिंदी वीडियो बनाकर तमाम तकनीक की जानकारियों को आम भारतीयों तक पहुंचाना हिंदी की सेवा कैसे हो सकती है भला? गूगल, फेसबुक और ऐसी ही विश्व की बड़ी से बड़ी कंपनियां आज हिंदी में अपने उत्पादों को लाने के लिए मजबूर हैं तो इसमें युवाओं का योगदान क्योंकर माना जाए? एडसेंस से लेकर, तमाम अफिलिएट नेटवर्क से हिंदीभाषियों के लिए, सरकार की मदद के बिना रोजगार के एक बड़े क्षेत्र को आयाम देने में युवाओं का योगदान किधर से हो गया भला? ई- बुक के रूप में सांस्कृतिक धरोहर को संजोने का कार्य भाषा-सेवा है क्या? नहीं, नहीं, नहीं … यह सभी प्रयास मुख्यधारा के थोड़े ही हैं. मुख्यधारा के प्रयास तो यही साहित्यकार लोग करते हैं, जिनमें किसी की बत्तीस तो किसी की छत्तीस किताबें छपी हैं, भले ही उसका प्राक्कथन भी पढ़ने योग्य न हो! मुख्यधारा साहित्य और भाषा की उन्नति का श्रेय तो उन्हीं मठाधीशों को जाता है, जो तमाम सरकारी संस्थानों और पुरस्कारों के साथ सरकारी संशाधनों पर भी कुंडली मारकर बैठे हैं! जी हाँ! ये मठाधीश कभी इस हिंदी भवन तो कभी उस साहित्य अकादमी में 25 -25 लाख या उससे भी ज्यादा राशि के बड़े-बड़े कार्यक्रम कराते हैं और हिंदी को शिखर पर पहुँचाने में युग परिवर्तनकारी भूमिका का निर्वहन करते हैं. यह अलग बात है कि उनके कार्यक्रम में, उन्हीं के सर्कल के 40 – 50 लोग आते हैं, मगर इससे क्या हुआ, एक शेर ही सौ गीदड़ों पर भारी पड़ता है और इन कार्यक्रमों में आने वाले 40 -50 लोग, चार-पांच हजार के बराबर होते हैं. ऐसे ही अनेक कारण हैं, जिसके कारण इनका महिमा-मंडन अवर्णनीय हो जाता है.

जहाँ, तक विश्व हिंदी सम्मेलन का प्रश्न है तो प्रधानमंत्री के द्वारा इसका उद्घाटन होना यह बताता है कि सरकार की प्राथमिकता इस भाषा को लेकर कितनी गहराई तक है. यूं भी केंद्र सरकार हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर प्रयत्नशील है. इस कड़ी में महेश श्रीवास्तव द्वारा रचित दसवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी गान ‘हिंदी का जयघोष गुँजाकर भारत माँ का मान बढ़ेगा’ के शीर्षक वाली रचना में सभी पक्षों को संतुलित करने की कोशिश की गयी है, जिसमें अन्य भारतीय भाषाओँ को हिंदी की बहनें तो, युवा शक्ति और कंप्यूटर का ज़िक्र ऊर्जा के सन्दर्भ में सुन्दर ढंग से किया गया है. नागरिकों को देवनागरी के प्रयोग करने और हिंदी को लेकर हीन भावना से मुक्त होने की अपील सार्थक ही है. दिलचस्प यह है कि इस गान में भी साहित्य का ज़िक्र नहीं है. इसी कड़ी में, तीन दिवसीय सम्मेलन में होने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा और बेहतर की जा सकती थी. विदेशों में हिंदी, प्रशासन, विज्ञान एवं संचार में हिंदी, विधि एवं न्याय क्षेत्र, बाल साहित्य, प्रकाशन, पत्रकारिता जैसे विषयों के अतिरिक्त ‘ब्लॉगिंग शब्द (विषय) का न होना खटकता है. यह विषय अपने आप में दुसरे विषयों से ज्यादा नहीं तो बराबर महत्त्व अवश्य ही रखता है, और यह शब्द सिर्फ एक औपचारिकता भर नहीं हैं, जैसे कि उपरोक्त वर्णित तमाम विषय हैं, बल्कि ‘ब्लॉगिंग’ हिंदी को अर्थोपार्जन से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास बन रहा है. आखिर हिंदी इसीलिए तो पीछे हो रही है, क्योंकि अंग्रेजी पढ़ने वाले वर्ग को धनार्जन का बड़ा मार्ग दिखता है. इस सन्दर्भ में देश के बड़े चैनल ABP न्यूज़ का प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है, जिसने इस सम्मलेन से पहले ही भारत के बेस्ट हिंदी ब्लॉगर्स को प्रोत्साहित करने का प्रयास करने का संकल्प लिया है. दैनिक जागरण जैसे बड़े हिंदी अख़बार को अगर कोई सरकारी नौकरशाह बारीकी से पढता होता तो उसे समझ आती कि यह अखबार भी ‘जागरण जंक्शन ब्लॉग ‘ के नाम से अपने प्रिंट-एडिशन में परिवर्तन लाने की शुरुआत कर चुका है. ऐसे ही तमाम प्रयास होने शुरू हो गए हैं तो फिर दसवां विश्व हिंदी सम्मलेन इससे अछूता क्यों? हिंदी ब्लॉगिंग की वजह से ही आज हिंदी ऐसे सम्मेलनों और दिवसों की औपचारिकता से काफी आगे निकल चुकी है. इस सम्मलेन और इससे जुड़ेVishv Hindi Sammelan in Bhopal, Hindi diwas, hindi article by mithilesh, 10th conference article, bhopal pandal image कार्यक्रम निर्धारकों का एक यह भी कर्त्तव्य बनता था कि वह ऑक्सफ़ोर्ड जैसी विश्व-स्तरीय शब्दावलियों में आये परिवर्तन को भी समझने की कोशिश करता. हाल ही में अंग्रेजी भाषा में 1000 नए शब्दों को शामिल किया गया है, तो क्या हिंदी में इस तरह के प्रयास की आवश्यकता नहीं है जो भाषा के प्रवाह को बनाये रख सके. इस महत्वपूर्ण विषय का सम्मलेन में अलग सेशन न होना अपने अपने आप में चिंतनीय और दुख़द है. खैर, इन तथ्यों के साथ यह भी सत्य है कि सुधार प्रक्रिया धीरे-धीरे ही आगे बढ़ती है. इस सम्मलेन की और भी उपलब्धियां तो इसके समापन के बाद आंकलित की जाएँगी, किन्तु विदेश मंत्रियों के बयान ने साहित्यकारों को आइना जरूर दिखाया है. आइना यह दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजकों को भी है कि वह किस प्रकार दारूबाजी, गुटबाजी और चापलूसी से आगे इस सम्मेलन को ले जाते हैं, क्योंकि इन शब्दों को अब आधिकारिक ही माना जायेगा. सरकार से पूछा जायेगा कि अगर पिछले सम्मेलन दारूबाजी और गुटबाजी के कारण बर्बाद हो जाते थे तो इस सम्मेलन से क्या हासिल हुआ? देखने और समझने वाली असल बात यही है और इसका इन्तेजार आम-खास सभी को रहेगा… तथाकथित साहित्यकारों को भी, जिन पर सरकार ने खुल कर निशाना साधा है.
– मिथिलेश कुमार सिंह, उत्तम नगर.

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