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हे मानव
अपने अंह से मुग्ध
अपनी विराटता का आंकलन
कब तक
वह भी बिना
किसी उचित माप-दण्ड के
मानव से मानव की तुलना
नीचे देख… प्रसन्नता
उपर देख… ग्लानि
किस कारण
कितनी सार्थक
अर्थ, सत्ता, अधिकार
जो भी, आज संग्रहित है
क्या समान धरातल पर खडे हो कर
स्पर्धात्मक परिस्थियो, में अर्जित हैं
क्या यही सही कद है
यदि मापना है स्वयं को
तो जान ले
एक सुक्ष्म रजकण
भर है अस्तित्व तेरा
कोई पर्वत शिखर
कोई पाताल खड्ड
स्वय़ को सबसे ऊंचा
सबसे गहरा माने
तो यह उसकी भूल है
आदि अनंत से परे
ब्रह्मांड में कोटि कोटि
आकाश-गंगाओं के मध्य
सहस्त्रो सूर्यों (तारों)
ग्रहों, उपग्रहों
की तुलना में पृथ्वी
स्वंय एक बिन्दू मात्र है
यदि इस पर स्थापित
कोई पर्वत स्वंय को
वृहद समझे
आकाश की विशालता को नकारे
तब उसे क्या कहें
यही माप-दण्ड है
स्वयं के कद नापने का
जो ये जान गया
वही सब से ऊंचा
वही सब से गहरा
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