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जीवन कोई गणित नहीं है
ना ही मनुष्य कोई आकृति
यहाँ समीकरण स्थापित सूत्रों से नहीं, अपितु
समय की मांग अनुसार सुलझाए जाते हैं
यहाँ कब आधार पैरों तले से खिसक जाए
कब सरल वक्र बने, कब सम विषम हो
कोई कह नहीं सकता
कभी गोलाकार, कभी वर्गाकार, कभी आयताकार
होती पृष्टभूमि पर
आधार और लम्ब की भूमिकाएँ बदल जाती है
यहाँ एक और एक, दो नहीं होते
ना ही ग्यारह
हो जाता है, एक और अधिक मोटा
एंव जन्म लेती एक डकार
पहला एक करता अपने सपने साकार
दूसरे एक को खाता और पचा जाता
अंक और रेखायें कभी किसी के नहीं होते
जो इनसे खेलता है भरमा जाता है
सबसे ऊपर और सबसे आगे रहने वाले
कुछ अलग ढंग से चढते और दौडते हैं
किसके कांधे पर पैर, कौन बना सीढी
कौन गिर पडा
इन विचारो से खुद को नही जोडते हैं
इस खेल में सब भूल जाते हैं
जीवन सरल रेखा नहीं, दुनिया भी गोल है
ऊंचाई के अन्तिम छोर पर कुछ है
जो सब को नुकेलता है
एक बार फ़िर से नीचे धकेलता है
जो इस सत्य को जान जाते है
जीवन के समीकरण को इस तरह सुलझाते हैं
अंकों को रिश्तों से अलग रख
प्रेम रस चखते हैं, चखाते हैं
मोहिन्दर कुमार
http://dilkadarpan.blogspot.in
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