दिल का दर्पण
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शरीर एक नाव है
एँव आत्मा एक यात्री
यही सत्य है सभी कहते हैँ
यदि यह सत्य भी है
महान तो शरीर ही हुआ ना
जीवन भर ढोता रहा जो
इस यात्री का बोझ
जो केवल मूक साथी था
इस घाट से उस घाट
की बीच की दूरी का
इस आशा मेँ इस पर सवार
किंचित यह नाव
समय धारे के विपरीत
बह कर उसे मिला देगी
उस परम ब्रह्म से
जिसका वो एक अँश है
उसे क्या बोध कि
इस नाव के साथ बँधी हैँ
और बहुत सी नाँवेँ
जो विवश करती है उसे
सिर्फ बहाव के साथ बहने को
और उन नावोँ पर सवार
उस जैसे यात्री
अनसुना कर देते है
इस नाव के अंत्रनाद को
मोहिन्दर कुमार
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