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बड़ा पुराना जुमला है कि मुल्ला कि दौड़ मस्जिद तक लेकिन नेतागिरी और राजनीती ने इस दौड़ को अहम बनाते हुए इसे सत्ता के गलियारे तक पहुंचा दिया है |
तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा सोनिया गांधी का मुस्लिम धर्म गुरु एवं जमा मस्जिद के शाही इमाम से मुलाकात इस बात का साफ़ प्रमाण देता है कि देश में सम्प्रदाये के नाम पर वोट की खरीद फरोख्त जरी है | केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि राज्य स्तरीय पार्टियां भी इस चुनाव में मुस्लिम वोटों को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहीं हैं , इमाम साहब तो बस सामने रखे गए है , बाकि और प्रदेशों में छोटे छोटे मुस्लिम दलों को पार्टियों में शामिल करने का खेल जारी है |
इतिहास उठा कर देखें तो इमाम साहब का रिकॉर्ड काफी खऱाब रहा है, 1977 में जब देश में कांग्रेस विरुद्ध लहर चली थी तो उस समय की जनता सरकार को अपना समर्थन दिया था इमाम साहब ने ,एवं जनता सरकार सत्ता में आयी थी , लेकिन उसके बाद हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी है | 2004 के लोक सभा चुनाव के लिए इमाम बुखारी ने भाजपा को समर्थन देने का एलान किया था और मुस्लिमों से भाजपा को वोट देने की अपील की थी , लेकिन कांग्रेस सत्ता में वापस आयी और वाजपेयी सरकार का दमन हुआ | इमाम बुखारी ने जमा मस्जिद क्षेत्र के मटिया महल से उम्मेदवार शोएब इक़बाल के खिलाफ फतवा जारी किया था लेकिन वो वहाँ से पिछली तीन बार से विजय पताका लहरा रहे है | 2007 के उत्तर प्रदेश के विधान सभा के चुनाव में इमाम ने बासपा को अपना समर्थन दिया था , परन्तु उनके द्वारा समर्थित ज्यादातर उम्मीदवारों को हार का मुह देखना पड़ा | सन 2012 में इमाम साहब ने अपना रुख समाजवादी पार्टी की तरफ किया और अपने दामाद को उत्तर प्रदेश की बेहत सीट से टिकट दिलवाया , गौरतलब है कि बेहत में 80 % मुस्लिम जनता है लेकिन वहाँ से भी इमाम साहब के दामाद को हार का मुह देखना पड़ा ,| इमाम साहब कि अगली पेशकश थी अपने भाई के लिए उत्तर प्रदेश से राज्य सभा का टिकट जिसे नामंज़ूर करने के बाद समाजवादी पार्टी और इमाम बुखारी का एक दूसरे से नाता टुटा | 2014 में इमाम बुखारी साहब एक बार फिर से सत्ता के गलियारों में कदम रख रहे है , और हमेशा कि तरह इस बार भी उन्होंने एक नए साथी का हाथ थामा है |
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