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मजदूर कि पत्रकार?

Unbiased I निष्पक्ष
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01 मई यानी मजदूर दिवस और हम मीडियाकर्मियों की छुट़टी। देखिये पत्रकारों को मिलने वाले इस अवकाश के खिलाफ हम बिल्कुल नहीं हैं; हमें तो आपत्ति इस बात पर है कि पत्रकारों को क्या मजदूरों की श्रेणी में रखा जाना ठीक है? हां, हमें भी पता है कि पत्रकारों को अवकाश बड़ी मुश्किल से मिल पाता है। ऐसे में यह अवकाश किस अवसर पर मिलता है, यह बहुत अधिक मायने नहीं रखता; मिल रहा है, यही बहुत है। अरे भाई, इसी छुट्टी के नहीं मिलने पर पत्रकारों को कभी अपनी ही सास को मारना पड़ता है तो कभी अपनी दोबारा शादी करानी पड़ती है। कभी बगैर बच्‍चे हुए ही, उसका स्‍कूल में एडमिशन कराने जाना होता है। जिन पत्रकारों को इस तरह के झूठ बोलकर अवकाश लेने में झिझक नहीं होती तो फिर भला मजदूर दिवस पर मिलने वाले अवकाश से क्‍या आपत्ति होगी? लेकिन, फिर भी मुझे इस दिन पत्रकारों का अवकाश पर होना अखर रहा है। पता नहीं क्‍यों, इस दिन अवकाश पर होने पर खुद के पत्रकार से अधिक मजदूर होने का अहसास होता है। सोच रहे हैं कि एक पत्रकार को मजदूर की श्रेणी में लाना क्‍या उचित है? हालांकि यह सवाल उठाते समय हमें इस बात का भी डर है कि कहीं पत्रकारों को बमुश्किल मिलने वाली यह एक छुट्टी भी न चली जाए लेकिन, बात जरूरी है, तो कहने का जोखिम उठा ही लेते हैं।

पिछले साल की बात है। मजदूर दिवस का ही दिन था। मकान मालिक अधिवक्‍ता हैं और मार्निंग कोर्ट के लिए अहले सुबह ही सज-धज कर तैयार हो गए। हमने यूं ही मजाकिये मूड में पूछा- क्यों पिंटू भैया, बारात सजने वाली है क्‍या? बस क्‍या था उन्‍हें तो मौका ही मिल गया जैसे और भला वकील, पत्रकार, पुलिस, कुत्‍ता मौका मिलने पर किसी को छोड़ते हैं कहीं? (यह हम नहीं कह रहे, लोग कहते हैं।) वकील साहब चालू हो गए- आप लोगों की तरह हम मजदूर नहीं हैं जो इस दिन छुट़टी पर रहें। हम लोग नौकरी नहीं करते, सामाजिक कर्तव्‍य का निर्वहन करते हैं…। वकील साहब अपने कोर्ट टाइम की परवाह किए बगैर बोलते चले गए। मुझे पिंटू भैया की यह मजदूर वाली बात लग गई। हमने अपने तर्क-कुतर्क से यह तो साबित ही कर दिया कि पत्रकार मजदूर नहीं होता, साथ ही यह भी जवाब दे दिया कि वे किस तरह सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हैं, या सामाजिक कार्यकर्ता की ड़यूटी नहीं निभाते लेकिन उनके इस व्‍यंग से मन में जो टीस उठी वह आज फिर जाग उठी, यह खबर मिलते ही कि कल मजदूर दिवस है और प्रेस बंद है। एक पत्रकार 24 घंटे ऑन कॉल या ऑन ड़यूटी रहता है। इसके एवज में उसे क्‍या मिलता है? यदि मजदूर है, या कर्मी है तो उसे 24 घंटे यानी तीन शिफ़टों नहीं तो कम से कम दो शिफ़टो की डयूटी का पेमेंट तो मिलना ही चाहिए और यदि नहीं मिलता तो फिर वह मजदूर, कर्मचारी कैसे है…?

एक वाकया और याद आता है। हाल ही में प्रबंधन ने अखबार के सभी मॉडम सेंटरों पर एक फार्मेट भेजा। इसमें आंचलिक पत्रकारों को अपनी डिटेल्‍स भरकर देनी थी। इसमें उन्‍हें यह भी लिखित देना था कि वे अखबार में वित्‍तरहित कर्मीं हैं और स्‍वेच्‍छा से नि:शुल्‍क सेवा दे रहे हैं। साथ ही पत्रकारिता से अलग हटकर अपना कुछ पेशा भी भरना था। यानी, प्रबंधन ने यह मान लिया था कि पत्रकारिता उनका पेशा नहीं, आर्थिक आधार नहीं है। इसके लिए वे किसी अन्‍य पेशे पर आश्रित हैं…। खैर, एक आंचलिक पत्रकार ने पेशे वाले कॉलम में मजदूर अंकित कर दिया था। हो सकता है उसने ऐसा गलतीवश किया हो लेकिन हमारे ब्‍यूरोचीफ झल्‍ला गए। बोले कि मजदूरी करते हो या कृषि? मजदूरी करते हो तब तो महीनेभर मनरेगा में ही काम करते रहोगे, पत्रकारिता कब करोगे?.. और भी तमाम बातें, झिड़कियां, शिकायतें, डांट…। जिसके बाद उसने कॉलम में मजदूर सुधारकर किसान कर दिया था। इस वाकये का यहां उल्‍लेख कर हम सिर्फ यह कहना चाह रहे हैं कि एक तरफ तो हम खुद को मजदूर मानना दूर, मजदूरी करने वाले व्‍यक्ति के पत्रकारिता में होने की भी खिलाफत करते हैं तो फिर इस दिवस पर अवकाश किस हक से लेते हैं?
हमें व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि पत्रकार सिर्फ और सिर्फ पत्रकार है। वह न तो मजदूर है, न कर्मचारी है, न नेता है, न शिक्षक है और ना ही कुछ और। हां, वह मजदूरों से भी अधिक काम करता है, सामाजिक कार्यकर्ता से अधिक समाज सेवा करता है, वह नेताओं से अधिक राजनीति करता है और वह शिक्षकों से अधिक ज्ञान भी बांटता है लेकिन तब भी यह सब उसकी पहचान नहीं हैं। उसकी पहचान यही है कि वह एक पत्रकार है। आग्रह है कि पत्रकारों को मजदूर दिवस की बजाय पत्रकार दिवस—पत्रकारिता दिवस पर अवकाश दिया जाए ताकि मजदूरी करते हुए भी खुद के पत्रकार होने का अहसास जिंदा रह सके।

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