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चाँद से वार्तालाप

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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चाँद से वार्तालाप

पूछा इक दिन मैंने चाँद से
क्या इक भेद मुझे समझाओगे ,
बोला चाँद मुस्कुरा के मुझसे
कहो मानव क्या है मन में जो फ़रमाओगे ।
पूछा मैंने कुछ झिझकते हुए
क्यों साथ तुम्हारे नहीं रहती
रहते तुम सदा आसमां पर क्यों फिर
यहां वहां चांदनी बिखरी रहती
सारे जग के हो तुम दुलारे
स्नेह साज से दुनिया तुझ्कोही जोड़ा करती
तुम बैठे ऊपर चमकते आसमां पर
रात से सुबह तक धरा पर वो ठहरी रहती।
क्यों उसको खुदसे रखते दूर तुम
क्या कोई रार है ठनी रात की रानी से ,
बसंत की प्रातः समीर सी है जो
क्योंइतनी दूरी फिर सुन्दर सुमुखी चांदनी से
क्यों दूरियों को कम करते नहीं
क्या विरह से तुम डरते नहीं ,
क्यों चकवे की भांति तुम
तड़प तड़प कर मरते नहीं
खामोश रह के ताकता रहता
मन ही मन क्या गीत विरह के ही गाता
क्या किया है तूने पाप कोई जो
वक्त मिलन का कभी नहीं आता
कुछ शर्माता कुछ कतराता
चाँद लगा जब बतलाने
सोचा अब सत्य का होगा खुलासा
दिल ठहर ज़रा चाँद लगा है राज कोई सुनाने
तो सुनो मानव छुपाऊंगा भला कब तक
पाप हुआ था इक मुझसे भारी
अर्ध रात्रि को घर में कर प्रवेश मैंने
भुगत रहा तब से जिसकी सज़ा अब तक
ऋषि गौतम ने दिया मुझको श्राप था
रख कर ह्रदय पर अपने हाथ
पाप की सज़ा तो मिलनी है तुमको
आज से नहीं रहेगी संगिनी तेरी कभी तेरे साथ
क्या मर जाऊं या जीवित रह कर
करूँ पश्चाताप यही मैं सोच रहा हूँ
श्राप से उऋण होने की खातिर
पुण्य करूं कोई या करूं तपस्या यही सोच रहा हूँ

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