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आसमान छूने को उठे थे जो हाथ ….”contest “

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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आजकल समाचार पत्रों और टेलीविज़न में जो ख़बरें सुनने को मिलती हैं उनमें एक बड़ा हिस्सा हिंदुस्तान के उस वर्ग के विषय में होता है जो कहीं भी कभी भी सुरक्षित नहीं है घर बाहर हर जगह वो भेदभाव की शिकार है ,,,. जी हाँ ,हर उम्र और हर वर्ग की महिलाओं ,नाबालिग मासूम कन्यायें और काम काजी महिलाएं सभी एक ऐसी दरिद्रता का शिकार हो रही हैं जिससे हर भारतीय शर्मशार तो रहा है किन्तु इस बुराई को रोक नहीं पा रहा क्यों ?इसी सवाल का जवाब मांगते हैं निम्न काव्य रचना के शब्द ………स्वयं एक पीड़िता की जुबानी ….
राजधानी दिल्ली में हुई निर्भया कांड पर आधारित यह कविता सिर्फ कविता नही बल्कि उस दर्द का अफसाना है जिसको बयान करना भी उस दर्द से गुजरना है जो दुनिया में कहीं भी ,कभी भी किसी ने सहा होगा ,,,,,,,,,,,
क्या कभी वो दिन आएगा जब हम इस भेद भाव से छुटकारा पाकर एक भयमुक्त राष्ट्र का सपना पूरा होते देखेंगे ”’

आसमान छूने को उठे थे जो हाथ
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पर्दों में थी महफूज़ शर्मों- हया जो हमारी तुम्हारी
खुदा के लिए न यूँ उछालों उन अनमोल से अहसासों को
यूँ सरे बाज़ार चौराहों पे ……………..
आसमान छूने निकले थे जो हाथ
भिंच कर रह गये मुठ्ठी बन कर वो दर्द को सम्भालने में
रह गई बिखर कर ख्वाहिशें सारी
इधर उधर चौराहों पे……………………….
घर की चारदीवारी में रहना था जिसे
बन कर रह गई हैं अब वो बातें
उन अख़बारों की सुर्खियाँ
चर्चा में हैं जो अब चौराहों पे ………………..
ऑंखें बंद है मेरी नही खबर खुद को मेरी
हाल चाल मेरे जिस्म का पता है
इसको ,उस को ,बस मेरे सिवा सबको
पता नही मेरे बारे में क्या क्या तो कहते होंगे
लोग अब तो सरे आम चौराहों पे ……………….
सोचती हूँ यह नींद है या बेहोशी यही अच्छी हैं अब तो
होश में आकर क्या मिलेगा इस जहाँ में मुझे
कुचल कर जहाँ रख दिया मेरे वज़ूद को
जहां सरे आम चौराहों पे ……………….
जिन्दा हूँ मैं पर शर्मिन्दा हूँ मैं
शर्मिंदा है मेरे अपने
शर्मिंदा है इंसानियत
शर्मिंदा है शायद वो ख़ुदा भी
अपने हाथों से रचे अपने उस इंसान पर
तोड़ दी जिसने सारी हदें इंसानियत की
और बन कर दरिंदा घूम रहा जो आज भी
सरे आम चौराहों पे ……………
क्या सजा देगा कोई क़ानून इन गुनहगारों को ?
न जाने कितने पेंच है कानून में ?
खुले घूमेंगे कल फिर यह दरिन्दे
कुचल डालने के लिए
किसी शर्मीली सी कली को
फिर सरे आम चौराहों पे .,,,,,,,,,,,
वो जो बैठे है ऊँची ऊँची .कुर्सियों पर
उनका सो गया ज़मीर ही शायद
बंद है जुबा उनकी न जाने किसके डर से
कुंद हो गये है अहसास भी उनके अब तो
सामने है मुज़रिम
लेकिन हाथ बंधे है सबके
सज़ा कैसे देनी है ?
कितनी देनी है ?
कब देनी है ?
देनी भी या नहीं ?
बस इसी चर्चा में बीत रहें हैं दिन आजकल
मेरे इस महान देश के
हर शहर के चौराहों पे …

सरोज सिंह
8 जून 2017

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