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न जमीं अपनी रही न फलक अपना ……….

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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विकास की राह में अंधाधुंध दौड़ते इंसान ने इतनी ऊँची छलांग लगा डाली कि जमीन से सारे नाते ही टूटते चले गये … पर मनुष्य कितनी भी प्रगति कर ले ,प्रकृति से दूर जाना उसकी बेचैनी को उसी तरह बढ़ाता है जैसे एक शिशु अपनी माँ से दूर जा कर अनुभव करता है और इसीलिए फिर से लौटना चाहता है अपनी जड़ों की ओर……इसी बचैनी से त्रस्त इकीसवीं सदी के इस मानव मन की एक छोटी सी झलक इस कविता में ………….
कैसा बसंत कैसी बहार

तोड़ नाता सदियों पुराना जमीं से अपनी ,लगी हैं नजरें अब आसमां की ओर/
नया सफर, नयी है मंजिलें भी ,चले हैं बांधने नए से कुछ रिश्तों की डो
कंक्रीट के जंगल हैं , अनगिनत मंजिलों में सिमटी अनगिनत जिंदगियां /
एक दूसरे से अजनबी , हैं कितनी मसरूफ यह जिंदगी
सर्दियों के मौसम में बालकनी से झांकता सहमा सहमा सा धूप का टुकड़ा /
ऊँची ऊँची इमारतों को पार करके पहुँचता है मुझ तक बस यही थका हुआ सा धूप का टुकड़ा /
इन्ही इमारतों में धरती से दूर बालकनियों की मुंडेरों पर खिलते है बसंत के फूल यूँ गमलों में /
कह रहें हों गोया , है नियम प्रकृति का वर्ना क्या खाक मज़ा है खिलना होकर कैद यूँ गमलों में /
कैसा बसंत कैसी बहार ऊँची ऊँची इन इमारतों के इस जंगल में न कोई तितली हैं न भवंरा
न गिलहरी दिखती है यहाँ न गोरैय़ा चहकती है, बस इक उदासी इक अजब सा सूनापन है बिखरा/
जमीं की ओर रुन झुन करती बरखा की बूंदे भी छींटों में बिखर जाती मुंडेरों से टकराते टकराते /
मिटटी की वो सोंधी महक गुजर कर अनगिनत मंजिलों से , हो जाती है मद्धम मुझ तक आते आते /
खो गया मौसमों का पता उनके लिए रहते हैं जो फलक और जमीन के बीच कहीं /
कोयल की कूक , बौर से लदे वो आम के पेड़,धरती पर गिरती नीम की निमौरियों की चर्चा अब होती नही
मिलते है लोग यहाँ अक्सर आते जाते सीढ़ियों में /लिफ्ट में कभी ,तो कभी सैर को जाते सुबहो- शाम /
भावहीन चेहरे ,हाथो में मोबाइल और कानों में आई -पॉड,कोई मुस्कान किसी पहचान का नही रहा चलन अब आम
बहुत पास पास हैं घर ,आमने सामने खुलते हैं दरवाजे भी , पर दिलों के द्वारों पे लगा लिए हैं ताले आज के इन्सां ने /
तीज त्योहारों का आना जाना सिमटा घर की दीवारों में कितना संकुचित कर लिया रिश्तों का दायरा आज के इंसान ने
याद है अब तक बारिश के बाद आने वाले उस इन्द्र्धनुष को देखने छत की तरफ दौड़ती बच्चों की वो टोली /
वो आंगन में अमरुद का पेड़ , वो पड़ोस की दादी , वो सब्जी वाले की हांक ,वो चिठ्ठियां बांटते डाकिये चाचा की मीठी बोली/
छोड़ आये सब पीछे , बहुत आगे बढ़ गया इंसान , जमीं छोटी पड़ने लगी अब सितारों पर है नजर
आशियानें बनने लगे अब वहाँ जहां का कोई पता नहीं ,वो फलक है या जमीं यह भी खबर नहीं

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