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उँगलियों की दरारों से तकती हूँ ..

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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उँगलियों की दरारों से तकती हूँ
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निकले थे हम तो रोशनी की खोज में /
साथ हमें मिला अंधेरो का क्यों ?
जब कभी भी मिली ख़ुशी कोई /
अश्क भी पलकों में चुपके से चले आये क्यों ?
दोस्त समझ थामा था कभी हाथ जिसका मैंने /
आजकल वो बेगाना सा लगने लगा है मुझे क्यों ?
आसमां पे चमकते चाँद सितारे मेरे साथी थे कभी /
रख कर आँखों पर हाथ
उँगलियों की दरारों से उन्हें तकती हूँ अब मैं क्यों ?
की थी चाहतें तो सुहाने मौसमों की
पर न धूप मिली न छावं /
राहे कब ले गई मोड़ कौन सा यह हमको खबर हुई नहीं क्यों ?
खुद को इन्सान समझ , जिन्दगी भर रोज जीते रहे , रोज मरते रहे /
हम थे बस किस्मत के हाथों का इक
खिलौना, राज यह हम समझ सकें न क्यों ?
जो मेरा कभी था ही नहीं , क्यों उसको अपना मान लिया /
इल्जाम अपनीं नासमझी का
किसी और पर अब भला लगाएं क्यों ?
बैठे हैं अब खाली निगाहें ,सूना दिल का आसमान लिए /
बेगानी हो गई यह जमीं,बेरहम हो गया है यह आसमां क्यों ?

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