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स्त्री है रचना ऐसी
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स्त्री है रचना ऐसी ………….
जोड़े दिलों को
कभी
तो कभी जोड़े
परिवारों को
न दिखने वाली सी
सूक्ष्म जंजीरों से
महीन से कुछ अदृश्य से तारों से
तो
कभी न दिखने वाले रेशमी धागों से
सब को सब तरफ से बांध ले
बंधनों में
दिखाई भी जो दे नहीं
क्योंकि यह बंधन
जुड़े होते हैं आत्मा से
स्त्री है रचना ऐसी ……
जानती है वो जीवन का राज ….
जीवन देना जानती है जीवन देती भी है
खुद को मिटाना जानती है
खुद को मिटाती भी है
छाया बनकर जीने का साहस भी उसमें
स्त्री है ………..
एक कण भी नही बचाती
हार देती खुद को
क्योंकि
हार में जीत छिपी होती है
यह जानती है वो
चरणों में रह कर भी
सर का ताज़ बनने का राज़
जान लिया है उसने
समुद्र की गहराइयों
आकाश की ऊंचाइयों तक
पहुंचना भी आता है
स्त्री है ………
स्त्रैण गुण लेकर इस धरती पर आई है
है आधार जो इस जगत की
प्रबलतम शक्ति का
इस गुण में ही छिपी विजय वो
असीम है जो
हार कर मिलती है जो जीत
उसको हरा सकता है कौन
स्त्री है ……..
जीवन रचती जो खुद में
सृष्टि के सृजन में
देती है अपनी आहुति भी
स्त्री है रचना ऐसी ही ……………
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