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तीन कवितायें………..

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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तीन अकवितायेँ
—————————–
( एक )
जिन्दगी ?
रिश्तों में बंधी कोई डोर जैसे ….
ज्यादा खींचें तो टूट जाएँ …..
छोड़ दें जो ढीला डोर को ……..
तो छिटक कर दूर चले जाएँ………
यह रिश्ते ………..
बीत जाये कभी तो उम्र ही सारी ……
न सीख पायें फिर भी …….
हम तुम ………
साधे कैसे रिश्तों की इस डोर को …..
कितना रखें पास …
कितनी दूर …………
(दो )
है नहीं कुछ साथ …
है नहीं कुछ सच ,,
न रास्ता ..
न मंजिल ……
न सृजन …..
न विनाश ……..
न भाग्य सच है …..
न अभिलाषाएं ……..
है सच तो बस चेतना ….
जो दिखाती राह वो ..
शाश्वत है जो …….
कि…………….
इस जीवन में ……..
नहीं स्थान स्व का कोई ……….
सत्य कभी न मरता …..
न पैदा हुआ कभी ……
नजरों को जो दिखता……..
वो सत्य नहीं ……..
देखते देखते रूप बदल लेता सत्य …….
और ……………….
हम …….
ठगे हुए मुसाफिर से ……..
पहुंच जाते वहीं ……..
सत्य की खोज में चले थे जहाँ से ……
जन्म बीते कई ..युग बीते कई ……
चल भी रहें हैं ……
हम ………..
और ………..
पहुंचे भी नही कहीं ……

(तीन )
कोने की सुरक्षा /
बहुत सुकून देती है /
पर……..
रोकती भी है हर /
ठंडी हवा के झोंके को /
बारिश की हर उस फुहार को /
जो भिगो कर ताज़ा करने आई थी /
तन को /
मन को /
चलो निकल कर देखे /
खुली हवा में /
रोशनी का साथ पाकर /
शायद ………
खिल उठेगा यह मन /
यह जीवन /
जो कुंठित था अबतक /
अपने ही कोने में सीमित/
घिरा हुआ अपने ही अनुग्रहों से /

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