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ज़र्रा- ज़र्रा समेटें जिंदगी ……….

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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ज़र्रा ज़र्रा समेटे जिंदगी

बीते पलों की गठरी खोली जो इक दिन फुर्सत में /
हुई मुलाकात उन पलों से रख छोड़े थे जो सहेज कर मन के किसी कोने में /

यादों की चादर पर जज्बात बस यूँ ही बिखर गये /
कई जख्म कराह उठे ,तो कई रेशमी मुस्कान बन महक गये /

पल पल निभाया तो था रिश्तों को /
बोये कुछ नये बीज भी ,रिश्तों के उगाये कुछ पुष्प नये /

कुछ बस चलते रहे ,कुछ ने साथ राहों में छोड़ दिया /
कुछ ने बाहें रखी थामे सदा ,सदा निभाया साथ हर मौसम में /

कभी मन रोया तन्हा, धूमिल होते अपनों के बंधनों से /
दिल के करीब थे जो ओझल होती उन रिश्तों की डोर से /

जख्मों को अपने समेट कर , टूट गये थे जो उन रिश्तों के आईने को जोड़ना चाहा /
जुड़ न पाये रिश्ते ,नहीं हो पाया आज़ाद आइना, उस दरार से, न था कभी जिसे उसने चाहा

फिर सोचा जाने दो उसको जो बीत गया ……
चलो रिश्तों के फूल कुछ नये उगाएं ……

और तब खिल उठा मन नये रिश्तों के खिलते अंकुरों को देख /
फैल गई खुशबु वो महका गई जो उदास बगिया जीवन की/

चलो आज फिर से जीना सीखें , ज़र्रा ज़र्रा जिंदगी फिर उठायें/
उठा कर फिर जोड़ें रिश्ते कुछ नये, शिकवे कुछ पुराने मिटायें /

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