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तो क्या मरने दें इस लोकतंत्र को?

JANMANCH
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यदि सरकार के विरुद्ध 10 करोड़ कर्मचारी एक साथ हड़ताल कर रहे हैं तो इसको क्या माना जाए ? देश के ग्यारह मजदूर संगठन एक साथ हड़ताल पर हैं छिटपुट हिंसा भी हुई है एक दो स्थानों पर, ये नहीं कहा जा सकता की वो हिंसा मजदूर संगठनो ने ही की। ऐसी स्थिति में कुछ भी हो सकता है जबकि अखिल भारतीय स्तर पर हड़ताल का आह्वान किया गया हो, कुछ अराजक तत्व भी इसका फायदा उठा सकते हैं। परन्तु इस सबके बावजूद क्या हड़ताल को जायज़ ठहराया जा सकता है जबकि एक अनुमान के मुताबिक देश को लगभग 20000 करोड़ के नुक्सान का अनुमान है तो क्या वो दस करोड़ लोग इस नुक्सान के लिए जिम्मेदार हैं या सरकार जो समयपूर्व सार्थक कदम उठाने में नाकाम रही ?


अपनी मांगों को मनवाने के लिए हड़ताल कहाँ तक जायज़ है ये बात भी मायने रखती है जबकि ये हड़ताल रुपी हथियार इस लोकतंत्र को उन्होंने ही दिया जिनको हम राष्ट्रपिता मानते हैं सरकार के विरुद्ध एक अहिंसात्मक विरोध “काम बंद।” तो क्या मजदूर संगठन सही हैं ? हो सकता कुछ लोग ये कहें की गांधी जी ने इस हथियार का प्रयोग अंग्रेजों के विरुद्ध और भारत की आज़ादी के लिए किया था और आज इस हथियार का दुरूपयोग ये मजदूर संगठन अपनी ही चुनी हुई सरकार के विरुद्ध के कर रहे हैं। तो वास्तव में देखा जाए तो गांधीजी का विरोध अंग्रेजों के नियम कानूनों के विरुद्ध था जिसकी शुरुआत उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में की थी, वो अंग्रजों के भेदभाव पूर्ण कानूनों का अहिंसात्मक विरोध हड़ताल के रूप में कर रहे थे। जो नीयम क़ानून जन भावनाओं के विरुद्ध हों मानवता के खिलाफ हों उनका विरोध उस नीयम को न मानकर किया जाए उसका खुला विरोध किया जाए। अहिंसात्मक तरीकों से सरकार को ये अहसास कराया जाए की वो गलत कर रही है।


तो यहाँ मजदूर कहाँ गलत हैं? जबकि मजदूरों ने यकायक हड़ताल नहीं की है बल्कि इसके विषय में तथाकथित मांगों को लेकर वार्ता चल रही थी और सरकार मांगों पर सकारात्मक रुख दिखाने की बजाये टालने की अपनी पुरानी निति पर अमल कर रही थी कुछ लोग जापान का उदाहरण भी देंगे की हड़ताल तो वहां पर भी होतीं हैं काली पट्टी बांधकर तो यहाँ पर उसी तरह हड़ताल क्यों नहीं करते ? तो क्या ये आपको लगता है की ये जापान की सरकार है नहीं ये भारत सरकार है ये सब कुछ जानकर आँख कान मुहं बंद रखती है। वास्तव में देखा जाए तो ये सरकार उस ब्रिटिश सरकार की भाँती ही है जिसके विरोध में संसद में भगत सिंह ने बम फेंका था।


भारत एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य है ऐसा माना जाता है यहाँ पर जनता की चुनी हुई सरकार राज्य करती है वो सरकार जो जनता की ही आवाज को दबाने का काम करती है, चाहे वो आन्दोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध हो अथवा कालेधन के घोटालों के विरुद्ध हो या सरकारी नीतियों के, हर बार सरकार ने जनता का गला घोटने का काम किया तो ये कैसे माना जाए की ये लोकतंत्र है यदि ये लोकतंत्र है तो जनता पर पूंजीपतियों को तरजीह क्यों, यदि ये लोकतंत्र है तो इस तंत्र का लोक इतना उपेक्षित क्यों? यदि ये भारत की सरकार है तो विदेशी कम्पनियों के आगे नतमस्तक क्यों ? और यदि ये भारत की ही सरकार है तो भारत की ही अनदेखी क्यों ?


वास्तव में देखा जाए तो जनभावनाओं को इस लोकतंत्र में कभी महत्त्व नहीं दिया गया। हमेशा एक तरह से राजशाही रही है जो आज भी बदस्तूर जारी है। जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ की शुरुआत कहाँ से हुई ये तो नहीं कहा जा सकता परन्तु कांग्रेस पार्टी ने तथाकथित आज़ादी मिलने से पूर्व ही जनता की भावनाओं को हवा में उड़ाना शुरू कर दिया था। जनता चाहती थी की भगत सिंह की फांसी के विरुद्ध कांग्रेस और गांधीजी कुछ सार्थक प्रयास करें पर उन्होंने कुछ नहीं किया जनभावनाओं पर उनके सिद्धांत भारी थे एक राष्ट्रीय जननायक युवक की जान से ज्यादा अहिंसा का सिद्धांत अतिप्रिय हो गया, और अहिंसा के सिद्धांत की हिंसा की भेंट एक नवयुवक की बलि दे दी गयी। दूसरा वाक्या भी सर्व विदित है जनता नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ थी और गांधी जी ने अपनी पसंद पट्टाभि सीतारमैया को थोप दिया जिसके फलस्वरूप नेताजी को कांग्रेस तक छोडनी पड़ी। आज़ादी के उपरान्त जनता सरदार पटेल के साथ थी और फिर व्यक्तिगत पसंद जनभावनाओं पर भारी पड़ी। और उसके बाद से आज तक जनता के विरुद्ध ही चलने का काम सरकार करती चली आ रही है तो कैसे समर्थन किया जाए इस सरकार का।


कुछ लोगों का कहना है की आम लोगों को इस सब से क्या लेना देना वो तो बस अपनी दो जून की रोटी के लिए ही सारा दिन हाथ पैर मारता रहता है और इस हड़ताल से वो भी मुश्किल हो जायेगी। आम लोगों का स्वार्थ कब तक अपनी दो जून की रोटी पर अटका रहेगा, कब वो अपनी ताकत को पहचान कर ख़ास आदमी बनेगा? ये दस करोड़ लोग आम लोगों में से ही हैं जो की कुछ ख़ास कर रहे हैं यदि सफल होते हैं तो उसका फायदा सब उठाएंगे। वो भी जो आम आदमी हैं और आम आदमी ही बने रहना चाहते हैं। जो लोग आम लोगों की दुहाई देकर न तो कुछ कदम उठाना चाहते हैं और न ही करने वालों का समर्थन करते हैं, सरकार को गाली भी देते हैं पर उसका विरोध भी नहीं करते न इस पार न उस पार, ऐसे लोगों को क्या कहा जाए मैं नहीं जानता मैं हमेशा से किसी न किसी द्रष्टिकोण के साथ खड़ा होना पसंद करता हूँ सही या गलत का आकलन इतिहास लिखने वालों पर छोड़ दिया जाए तो ज्यादा बेहतर।


मेरा ऐसा मानना है की 20000 करोड़ के नुक्सान से यदि कुछ सार्थक निकल कर आता है तो बुरा क्या है जब ये राष्ट्र 176000 करोड़ का कॉमनवेल्थ झेल सकता है, 180000 2जी झेल सकता है, 200000 करोड़ का कोयला जला सकता है 350 करोड़ के हेलीकाप्टर उड़ा सकता है, 4100000 करोड़ का काला धन देश के बाहर भेज सकता है तो 20000 करोड़ का ये दंड भी झेल सकता है यदि कुछ सकारात्मक निकला तो ये कीमत बुरी भी नहीं।


अब जबकि हड़ताल जारी है सरकार भी लोकतंत्र की दुहाई दे रही है और हड़ताल कर्मी भी। सरकार लोकतंत्र में हड़ताल को गैरवाजिब मानती है तो हडताली अपना लोकतांत्रिक अधिकार। लेकिन कुल मिलाकर इस पैंसठ साल के लोकतंत्र को लोकतांत्रिक रूप से क्या मिला जबकि हर बार लोकतंत्र की हत्या हुयी हो? तो क्या इस “तंत्र “के “लोक “को अपने प्रयास बंद कर देने चाहिए या विरोध करना चाहिए सरकार की उन नीतियों के विरुद्ध जो जन विरोधी हों, पैंसठ साल का इतिहास हमारे सामने है तिल तिल कर मरने दें लोकतंत्र को या आम आदमी से ख़ास बनकर कुछ करें और परिणाम लिखने दें इतिहासकारों को।

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