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दधिची बनिये

JANMANCH
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हमारे समाज में महर्षि दधिची को कौन नहीं जानता जिन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय के लिए अपने जीवन को बलिदान कर दिया और उनके ही अस्थिपंजर से इन्द्र के अस्त्र वज्र का निर्माण किया गया जिसका प्रयोग कर इन्द्र को विजय हासिल हुई.


आज के दौर में भी जिसमें की हम तकनीक का भरपूर प्रयोग कर रहे हैं फिर भी बहुत सी जगह अपने आप को लाचार पाते हैं, बहुत सी ऐसी बीमारियाँ हैं जो आज भी लाइलाज बनी हुई हैं, जैसे “अंधापन, दिल की समस्या, किडनी, अन्य बहुत सी शल्य चिकित्साएँ जो की केवल इसलिए संभव नहीं हैं या तो इलाज़ बहुत महंगा है या उसकी पूरी व्यवस्था ही नहीं है .


मेरे एक जानकार हैं उनकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी हैं पैसा भी है लेकिन किडनी नहीं मिल रही है एक ऐसे सज्जन हैं जिनका ह्रदय प्रत्यारोपण होना है पर लाचार हैं, देश में लाखों लोग ऐसे हैं जो अपनी अँधेरी दुनिया को प्रकाशयुक्त बनाना चाहते हैं और इस इंतज़ार में हैं की कहीं से आंखें मिल जाएँ. लेकिन सब लाचार हैं क्योंकि हमारे देश में इस तरह की व्यवस्था ही नहीं है हम परोपकार की बातें तो करते हैं लेकिन परोपकार के काम नहीं करते .


हमारे देश में प्रत्येक वर्ष लगभग पांच लाख लोगों को अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है लेकिन पांच हज़ार से ज्यादा की आपूर्ति नहीं हो पाती है लगभग दस लाख लोगों को अँधेरी दुनियां से उजाले में आने के लिए आंखें चाहिये पर वो मजबूर हैं अँधेरे में रहने के लिए . एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग पचास हज़ार लोग दिल की बिमारी से, दो लाख लोग लीवर की बिमारी से ……….. मर जाते हैं लगभग डेढ़ लाख लोग किडनी की प्रतीक्षा में हैं लेकिन मिल पाती हैं पांच हज़ार ………………..! और ये स्थिति उस देश के लोगों की है जिस देश में “महर्षि दधिची” जैसे उदाहरण मौजूद हैं.


आज हम देखते हैं की समाज में इस विषय में लोग नहीं सोच पा रहे हैं केवल वही इस बात को समझ पा रहा है जिस पर बीत रही है. लेकिन उपाय ………….? उपाय उसके पास भी नहीं है वो निराश है . वो व्यवस्था को कोस रहा है सरकार को कोस रहा है भाग्य को कोस रहा है . मेरे विचार में इसका एक मात्र हल “अंग दान” है लेकिन हमारे देश में इस विषय में लोग अधिक जागरूक नहीं हैं इसलिए आवश्यकता है “अंग दान” के लिए भी लोगों को प्रेरित किया जाए, क्योंकि बिना लोगों के जागरूक हुए इस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर सकारात्मक परिणाम आना मुश्किल है, किडनी जैसे अंग को तो व्यक्ति जीवन रहते भी दान कर सकता है, बहुत से अंगों को चिकित्सक व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त भी निकाल कर प्रत्यारोपित कर देते हैं यदि उनको तुरंत सूचना मिल जाए.


मुझे प्रतीत होता है की हमारी कुछ धार्मिक मान्यताएं भी मृत्यु उपरान्त अंग दान में बाधक बनती है या कहिये रूड़ीवादी सोच ! अन्यथा सम्पूर्ण शरीर को दान किया जा सकता है लेकिन ऐसा करने पर शायद चिता न जले, आत्मा को शान्ति मिले न मिले, और पंडित जी की कमाई पर फर्क पड़े लेकिन यकीन जानिये चिकित्सा क्षेत्र में क्रान्ति जरूर आ जायेगी. लोगों को असमय काल के गाल में नहीं जाना पड़ेगा, लोगों का अपाहिजपन दूर होगा जिंदगी में उजाला होगा.


लेकिन ये सब तभी संभव है जब हम अपनी कुछ रुड़ीवादी सोच को छोड़ दें और अपने ही पूर्वजों का अनुसरण करें, और अंग दान के महत्त्व को समझें और लोगों को जागरूक करें. हम आज भी अपना सम्पूर्ण शरीर दान कर सकते हैं जिसका सदुपयोग हमारी म्रत्यु के उपरान्त “चिकित्सक” आसानी से कर सकते हैं , मेडिकल के छात्रों को पढ़ाने में शरीर का प्रयोग हो सकता है किसी शोध में हो सकता है …………….! और यदि समय रहते शरीर हॉस्पिटल पहुँच जाए तो अंगों को भी प्रत्यारोपित किया जा सकता है . ये शरीर जिसको हम मिटटी मानकर मृत्यु उपरान्त जला देते हैं उसका सदुपयोग हो सकता है …….! लाखों लोग इस आस में बैठे हैं की कोई तो होगा जो उनके दुःख को महसूस कर सकेगा ……..! उनको नया जीवन देगा. इसलिए सोचिये कुछ नया कीजिये ….. दधिची बनिए …………………!

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