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10 जुलाई 2020 की सुबह उठते ही जैसे सूर्य की तीव्र और तीक्ष्ण रश्मियाँ वातावरण को असहज गर्मी दे रही थी, दुर्दांत अपराधी विकास दुबे की तथाकथित एनकाउंटर में मृत्यु पर हर तरफ चर्चा गर्म थी- – मॉर्निंग वॉक से मीडिया तक, सामूहिक चर्चा से सोशल मीडिया तक. सही-गलत के विश्लेषण, कानून और न्याय की व्याख्या, अपराध का राजनीतिक संरक्षण या राजनीति को अपराध का समर्थन, घटनाक्रम की आंखों-देखी, साक्ष्य-प्रमाण, आरोप-प्रत्यारोप, अपराधी का अंत या अपराध की तह तक पहुंचने का सुराग बंद – कब सुबह से शाम हो गई पता ही नहीं चला. फिर ख्याल आया, इन्हीं बहसों में तो पिछले चार दशक गुजर गए, कहां कुछ पता चला, कहां कुछ बदला.
एनकाउंटर – कब होते हैं, क्यों होते हैं और क्या आगे से नहीं होंगे? हाल के दिनों में तमिलनाडु के तूतीकोरिन में पुलिस की हिरासत में पिता-पुत्र (पी. जयराज और बेनिक्स) की हत्या होती है और जनाक्रोश सड़कों पर उतर आता है, पूरी जन-सहानुभूति मृतकों के साथ होती है. पुलिस की बर्बर और निरंकुश छवि पर सवाल हो रहे हैं. दूसरी तरफ विकास दुबे मामले में जन-सहानुभूति पुलिस के साथ है, शायद कहीं जय जय कार भी हो रही हो. पुलिस को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है, फिर भी जब पुलिस ऐसा करती है तो कभी जनता नायक बना देती है और कभी खलनायक. दुर्भाग्य से दोनों तरह की वारदातें लगभग साथ-साथ ही चलती है.
हमारे देश के न्यायालयों में लंबी और खर्चीली प्रक्रिया, जटिल कानूनी दांव- पेंच, पारदर्शिता की कमी, पैसों और ताकत का प्रभाव- इन सबों का सम्मिलित असर कुछ ऐसा है कि न्यायालय जाने की बात सोच कर आम भारतीय सहम जाता है. दूसरी तरफ “बड़े लोग” हमेशा न्यायालयों में दूध का दूध और पानी का पानी होने की बात कहकर फ़ैसले को लगभग अंतहीन बना डालते हैं. आपराधिक मामलों में पुलिस की बदले वाली ऐसी प्रक्रिया जनमानस को त्वरित न्याय का अहसास देती है जो न्यायालयों में मुमकिन ही नहीं है. “बदले के हर्ष” के अतिरेक में जनता इस अधिकार के दुरुपयोग की बात भूल जाती है. पुलिस हो या न्यायालय, जनभावना और जन सरोकार को नजरअंदाज कर प्रासंगिक नहीं रह सकती. “किसी ने जेसिका को नहीं मारा” जैसे निर्णय के बाद उबले जन आक्रोश ने न्यायालय को भी फैसला बदलने पर मजबूर किया. तमाम गैर जिम्मेदाराना हरकत और भ्रष्टाचार के बावजूद न्यायिक व्यवस्था में बदलाव के कोई ठोस प्रयास नहीं दिखते हैं.
न्यायपालिका और पुलिस के बीच एक विचित्र संघर्ष की स्थिति है. विकास दुबे को अब तक के आपराधिक मामलों में न्यायपालिका दोषी नहीं ठहरा सकी जिसमें पुलिस चौकी पर गोली मारकर की गई हत्या भी शामिल है. आज उसी न्यायपालिका पर पुलिस द्वारा किए गए इस एनकाउंटर को असली या फर्जी ठहराने का दायित्व भी है . न्यायपालिका की निर्णय प्रक्रिया और उसमें लगने वाले समय को देखते हुए शायद ही कोई आम आदमी इस तरह के निर्णय को किसी तार्किक अंजाम पर पहुंचता हुआ देखने की उम्मीद कर पा रहा हो और यही इस बात की सच्चाई बयां करता है कि आने वाले समय में हमें और एनकाउंटर देखने को मिलेंगे अथवा नहीं. बहस भले ही एनकाउंटर के असली या नकली होने पर हो रही हो पर आम जनमानस को इस मुद्दे पर कोई शंका है ही नहीं और यही बड़ी चुनौती भी है क्योंकि सामाजिक सोच सिर्फ एनकाउंटर को नैतिक और अनैतिक मानने की है.
विकास दुबे जैसे अपराधियों की असली ताकत राजनीतिक आकाओं से ही आती है. आज भले ही विकास दुबे के साथ “राज” दफन होने की बात हो रही है परन्तु न तो विकास दुबे इस राह का नया पथिक था और ना ही इस राह पर यह उसका पहला कीर्तिमान था. पिछले तीन दशकों से इसी कौशल और साहस ने उसे ताकत, पहचान और रसूख दिया है. आज के भारत में विकास दुबे कोई नई पौध नहीं है जिसके गहन अध्ययन और अनुसंधान की आवश्यकता है बल्कि उस प्रजाति की पौध हैं जो लहलहा रही है और जिस प्रजाति को व्यवस्था पोषण भी दे रही है और अपने चेहरे पर लगाकर अपनी चमक भी बढ़ा रही है.
डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।
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