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मूर्ति पुजा सही या गलत ?

My Thoughts....मेरे विचार
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हमारा 90% ज्ञान सूचनाओं पर आधारित होता है, जो की हम किसी तीसरे व्यक्ति या त्रुटिपूर्ण साहित्य द्वारा प्राप्त करते है। यही जानकारियाँ हमारे बेतुके तर्कों का आधार भी होती है। इन्हीं आधी अधूरी जानकारियों को अपने आप में समाहित किए हुए कभी –कभी हम हर विषय पर जिरह करते हुए पाये जाते है। कभी-कभी हमारा यह ज्ञान धर्म समाज और देश को वास्तविकता से दूर ले जाता है। आज अगर अपने आस-पास नजर दौड़ाई जाए तो पायेंगे की हम में से हर किसी का विशेष कर धर्म को लेकर लिया गया निर्णय प्रायः एक झुकाव लिए हुए होता है। जो की स्वाभाविक भी है, क्योंकि हमारा निर्माण उसी परिवेश में होता है। इस स्वाभाविकता को मैं तब तक ही सही मानता हूँ जब तक व्यक्ति अशिक्षित है । परंतु जब व्यक्ति शिक्षा के पाने के बाद भी उसी विचारधारा को लिए रहता है, तब उसकी शिक्षा पर थोड़ा संशय पैदा होता है। किसी भी संदर्भ में झुकाव कभी भी देश तथा जनता हित या धर्म अनुकूल नहीं होता। यह शाश्वत सत्य है की समाज और संसार की हर वस्तु, विचार के सदैव से ही दो पहलू रहते है यह आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है की आप क्या देखना चाहते है। कागज और समाज के दृष्टिकोण से मैं हिन्दू हूँ, परंतु मेरे लिए मस्जिद, मंदिर गिरजा घर और गुरु द्वारे में रहना वाला एक ही है। और जो जगह मेरे पास होती है मैं वहाँ उससे मिलने चला जाता हूँ। वह एक ही है यह आप पर निर्भर करता है की आप किस भाषा का उपयोग करते है, अरबी, हिन्दी, इंगलिश या कोई और। हर धर्म ने ईश्वर को पाने के अलग- अलग रास्ते बताए, जिनकी मंजिल एक ही होती है। परंतु समय के साथ हर धर्म कुरीतियों समाहित होती जाती है, और धीरे-धीरे उसकी वास्तविक विचारधारा बिखरती जाती है, जो की एक प्राकृतिक प्रक्रम है। इन्हीं कुरीतियों को आधार मान कर कुछ अनुयायी मंजिल को भूल कर रास्तों की तुलना करने लगते है, और समाज को बाटने का प्रयास करते है। हर धर्म ने ईश्वर को मानने या आराधना करने के दो रास्ते या रूप बताए है साकार और निराकार। साकार को हम मूर्ति पुजा भी कहते है। मूर्ति पुजा को लेकर हर विद्वान के अपने अलग-अलग विचार है। कोई इस बात से सहमत है कोई नहीं है। मेरे विचार में इस सहमति या असहमति पर की गई जिरह आधारहीन और अत्यंत ही अ-तार्किक लगती है। वास्तविकता में साकार और निराकार दोनों बराबर है। यह इस बात पर निर्भर करता है की हम भगवान को किस रूप में देखते है। वास्तव में वह हमारे अंदर ही है। आपकी आस्था ही आपको भगवान के साकार या निराकार होने का अहसास दिलाती है। आप भगवान को जिस रूप में माने, वह आपको उसी रूप में ही मिलेंगे। श्री कृष्ण ने श्रीमद भागवत गीता के चौथे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में इस विषय पर बहुत ही सारगर्भित बात कही है :
ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
अर्थात् जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। भगवान को साकार या निराकार रूप में देखना हमारी आस्था पर निर्भर करता है। आप उन्हें जैसा भी पूजे आपको उनका सानिध्य समान ही मिलेगा। यदि कोई व्यक्ति आपके ईश्वर के मानने के तरीके पर प्रश्न उठाता है, तो वह ना की वह आपकी आस्था को ठेस पहुँचाता साथ ही साथ ईश्वर का भी अनादर करता है। कभी- कभी लोग यह भी प्रश्न उठाते है की हजारों देवी देवता क्यों? मुझे भी नहीं पता क्यों ? पर इतना जरूर पता है की आप किसे भी पुजा आपकी आस्था वही रहेगी और फल भी वही मिलेगा। इस संदर्भ में भगवान कृष्ण ने भागवत गीता में अत्यंत तार्किक बात कही है
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥

अर्थात जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगो को निःसंदेह प्राप्त करता है। इन सब बातों से मेरा इतना ही तात्पर्य है की आप चाहे जिसे माने साकार या निराकार कोई फर्क नहीं पढ़ता। परंतु फर्क तब पढ़ता है जब आप इन में बुराई देखने लगते, और इसी आधार पर आपस में बुरे बन जाते है, जो ना ही धर्म हित में है ना ही मानव हित में। मानव का पहला धर्म दूसरे मानव का और उसकी आस्था और भावना का सम्मान करना। तर्क मंजिल पर लगाओ रास्ते पर नहीं।

जय हिन्द
अजय सिंह नागपुरे

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