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कचरे की दुनिया

narendra jangid
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एक बार रेलवे प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतजार कर रहा था तभी एक लड़का हाथ में झोला लिए यात्रियों के द्वारा फेंकी जाने वाली कोल्ड ड्रिंक बोतल और पानी की बोतलें पटरियों से इकठ्ठी कर रहा था। प्लेटफार्म की ऊंचाई से लगभग तीन फुट नीचे चार पटरियों पर फैले मल – मूत्र से बेपरवाह वह बाइस – तेईस साल का लड़का ऊँची – ऊँची आवाज में ‘ये दुनिया पीतल दी ‘ वाला गाना गा रहा था। लड़का बिलकुल बेपरवाही से गाने गाता हुआ केवल बोतल उठाने में मशगूल था। थोड़ी देर बाद पटरियों के पास अपना झोला रखकर वो बोतलें गिनने लगा। मैंने उसके पास जाकर उसका नाम पूछा तो उसने सोनू बताया और फिर प्रश्नवाचक निगाहों से मेरी ओर देखने लगा। थोड़ा आत्मीयता से बात करने पर पता लगा कि वो दिल्ली की झुग्गी -झोंपड़ियों में पला – बढ़ा। फिर कुछ दोस्तों के साथ यहाँ आ गया और कई सारे कामों को आजमाने के बाद इस धंधे में उतरा है।
कहते है कि बच्चे देश का भविष्य होते है लेकिन कुछ बच्चों का भविष्य ये कचरे का ढेर ही है। कचरा बीनने वाले नालियों और नालों में कीमती कचरे को ढूंढ़ते फिरते हैं पर आपने इन्हें नालों और गटर में कुछ ढूंढ़ते हुए बहुत कम देखा होगा, क्योंकि ये आपके जीवन का हिस्सा ही नहीं हैं। कचरे के इस काले पहाड़ पर बच्चों की सेना बड़ी खुशी से खेलती हुई नजर आती है। ये बच्चे कोई और नहीं बल्कि उन्हीं कचरा बीनने वालों की संतानें हैं। ये अपनी रोजी रोटी की तलाश में शिक्षा से पूरी तरह से कटे हुए है। भारत में कूड़ा उठाने वाले बच्चों पर बहुत कम काम हुआ है। इनकी ओर किसी की नजर ही नहीं जाती, क्योंकि ये सबसे निचले स्तर का काम करते हैं, जिसमें किसी कौशल की जरूरत नहीं पड़ती। ये लोग अधिकतर अपनी पारिवारिक कमजोरियों के चलते इस ओर आते हैं।
देश का एक कटु सत्य यह भी है कि मासूम बच्चों का जीवन कहीं तो खुशियों से भरा है तो कहीं छोटी से छोटी जरूरतों से भी महरुम है। बच्चों के हाथों में कलम और आंखों में भविष्य के सपने होने चाहिए। लेकिन दुनिया में करोड़ों बच्चे ऐसे हैं जिनकी आंखो में कोई सपना नहीं पलता। बस दो जून की रोटी कमा लेने की चाहत पलती है। कचरे के ढेर में जिंदगी तलाशने वाले या तो खुद स्कूल छोड़ देते है या माँ बाप पैसो के लालच में उन्हें कचरा बीनने में लगा देते है। नन्हीं सी उम्र में कमाई गई छोटी रकम भी उन्हें बड़ी लगती है। वे छोटी उम्र में ही मानसिक रूप से बड़े हो जाते है और जल्दी ही बुरी आदतों के शिकार हो जाते है। वे नाजुक उम्र में ही बीड़ी, सिगरेट व गुटखे आदि का सेवन करने लगते हैं। छोटी उम्र में देखे गए बड़े-बड़े सपने जब पूरे नहीं होते तो ये जाने-अनजाने स्थानीय गुंडों के चंगुल में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। आगे चलकर यही बच्चे समाजद्रोही और अपराधी बन जाते हैं।

एक तरफ विद्यालयों में बाल दिवस की खुशियां मनाई जाती है तो दूसरी तरफ सैकड़ों बच्चे कचरों के ढेर में जिंदगी तलाशते नजर आते है। उन्हें अपने भविष्य की चिंता नहीं रहती , उन्हें बस एक बात की चिंता रहती है कि उनका झोला कबाड़ से कब भर जाये ताकि घर जाने पर माता पिता इस छोटी सी कमाई से खुश होकर उनको दुलारे। उनके माँ बाप को भी उनके भविष्य की चिंता नहीं रहती है , उन्हें बस यही चिंता रहती है कि कुछ हम कमा ले और कुछ बच्चे कमा ले ताकि घर की चक्की किसी तरह चल जाये। ऐसे बच्चों को ध्यान में रखते हुए ही सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया। इन सबके बावजूद में ऐसे कई बच्चे है जो या तो माता पिता के दबाव में या अपनी मर्जी से इन कचरे के ढेर में ही अपने भविष्य को निहारते है। गरीबी, निरक्षरता, शोषण और कमाने के बेहद कम विकल्पों से गांव की गरीब आबादी बड़े शहरों की तरफ पलायन करती है। इन्हें कोई सहारा या आसरा नहीं होता। खूब भटकने के बाद अंतत: ये कचरा बीनने वालों की जमात में शामिल हो जाते हैं। असली मेहनत तो ये बच्चे करते हैं। आज कचरा बीनने का काम एक संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। ये पुन: उपयोग में आने वाली हर उस वस्तु को उठा लेते हैं, जिसकी मांग होती है। इनमें से तो कुछ वस्तुएं शरीर के लिए अत्यंत ही नुकसानदायक होती हैं।ये बच्चे अक्सर नंगे पैर व हाथ के साथ ही अत्यंत घातक और बीमारियों से युक्त कचरे के ढेर में दिन भर भटकते रहते हैं और ऐसी बीमारियों और संक्रमण का शिकार हो जाते हैं, जिसका इनके पास सही इलाज नहीं है। हम जिंदगी के सफर में हमेशा चाहते हैं कि काश बचपन वापस आ जाए। मगर कूड़ा बीनने वाले बच्चे क्या कभी अपना बचपन वापस चाहेंगे? –
एक बार अस्पताल के पास से गुजरते हुए मैंने देखा कि दो बच्चे मेडिकल कचरे से कुछ यूरिन और ग्लूकोज़ की नली बीन रहे थे। इनको नहीं मालूम है कि ये कचरा कितना खतरनाक है। ये तो सिर्फ इतना जानते हैं कि नली से बनने वाली गुलेल से दस रुपए मिल जाएंगे। पूरे विश्व में कचरे को इकठ्ठा करना, फेंकना और उसे नष्ट करना एक सामान्य दैनिक कार्य है। हर देश में कचरे के निबटारे का तरीका भी अलग-अलग है। आज कचरे को नष्ट करना एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। कचरे के संग्रह व निबटारे के गलत तौर-तरीके के चलते ग्लोबल वार्मिंग में भी बढ़ोतरी हो रही है। विकसित और औद्योगिक देशों में कचरे को परिष्कृत तरीके से नष्ट किया जाता है और दोबारा उपयोग के लायक बनाया जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन बच्चों के लिए समय-समय पर अनिवार्य शिक्षा के कानून बनते हैं, अरबों रुपये की योजनाएं बनती हैं तथा ढेरों वादे किए जाते हैं, वही बच्चे बेहद विपरीत परिस्थितियों में कचरा बीनने और अन्य क्षेत्रों में मजदूरी करने के लिए विवश होते हैं। इतनी मेहनत करके भी उन्हें उनके हक का हिस्सा नहीं मिलता है। मुंबई समेत पूरे देश के फेंके हुए कचरे में से पुन: उपयोग में आने लायक वस्तुओं को बीनने के बाद भी कचरा बीनने वाले बच्चे धन्यवाद जैसे शब्द के भी मोहताज हैं। आज तक सरकार ने न तो इन बच्चों की सेवाओं के महत्व को स्वीकार किया है और न ही उन्हें किसी तरह की सुविधा ही उपलब्ध कराई गई है। जब तक देश का बचपन श्रम करने और उससे अपने परिवार को पालने में लगा रहेगा तब तक बाल श्रम से मुक्ति नहीं मिल सकती। अब भारत बाल श्रमिकों के हित में लड़ने के लिए विश्वस्तरीय पुरस्कार का हकदार बना है। फिर भी हमारे आसपास बच्चे कूड़े में जीने का सहारा ढूंढ़ रहे हैं तो शायद हम सबके लिए यह बहुत शर्म की बात है।

क्योकि यही बच्चे देश का भविष्य है जब तक हम बच्चों के हाथों में औजार और रोजगार देकर गरीबी का निदान करने का प्रयास करेंगे, तब तक न तो गरीबी समाप्त होगी और न ही बाल श्रम। इन्हें सच्चे अर्थों में शिक्षा का अधिकार देना होगा।जब हम अपने आसपास बच्चों को कूड़ेदान में अपना रोजगार या यों कहिए एक वक्त का भोजन ढूंढ़ता देखते हैं तो ऐसा लगता है कि तरक्की की चमक अभी हमारे समाज के इस हिस्से को छू भी नहीं सकी है।
इसके लिए सामाजिक स्तर पर जागरूकता लाना आवश्यक है क्योकि हमारे समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि बच्चे काम करें। कूड़ा बीनना भी बाल मजदूरी का हिस्सा है, उन्हें यह बात समझ नहीं आती। इसी प्रकार का सोच और नजरिया रखने वाले लोग ही बचपन को कूड़ा उठाता देख, संकोच और शर्म नहीं महसूस करते।

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