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बस दो सूखी रोटी खातिर

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पसीने से तरबतर
कड़ी धूप में तपकर
दो सूखी रोटी खातिर
अपने से कई गुना ज्यादा
बोझ ढ़ो रहे मजदूर
हमारे लिये बना रहे रास्ते
हमें न लगे रास्तों में ठोकरें इस वास्तेे
पर उनकी पूरी जिन्दगी
हैं उबड़-खाबड़ रास्तों से भरी
हर पग पर ठोकर है
हर पल संघर्ष है
हर दिन एक नई चुनौती
दो सूखी रोटी खातिर
जाड़ों की सर्दीली रातें
या गर्मी की जेठ दुपहरी
या हो मूसलाधार बारिशंे
सर पर बोझ, कदमों में लड़खड़ाहट
मन में दबी तमाम ख्वाहिशें
हर समय अनहोनी की आहट
बस दो सूखी रोटी खातिर।

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