दोस्तों, छोटी दीपावली के दिन अयोध्या की सजावट और सभी न्यूज़ चैनेलो पर उसको मिल रही प्रतिष्ठा से मैं में ये सवाल उठा की दिवाली तो हर साल आती थी पर क्या सभी को तब भी अयोध्या का ख्याल इस भाँती आता था?
इसी सब उधेड़बुन में ये कविता लिखी हु| आशा है आप सब को पसंद आएगी|
मैं अयोध्या नगरी, आज सज धज कर, मुस्कुरा रही हु| चहुँओर प्रकाशित दीपो की माला, वायु में सुवासित फूलों, धुप – दीप की सुगंध| त्रेता युग सा विहंगम दृश्य| अविरल अश्रु बहा रही हु||
सहसा मैं सहम जाती हु| अनंत वर्षो तक तिरस्कृत, उपेक्षित निरीह सी मैं, अपने अस्तित्व क नष्ट होने की प्रतीक्षा में अंतिम साँसे ले रही थी|
मेरे जिस पुत्र की कीर्ति पुरे विश्व में फैली है, गगनचुंबी जिसकी प्रतिमायें अनेकानेक देशों में प्रतिष्ठित है| जिसके शौर्य, क्षमा, करुणा, प्रेम, संवेदना की गाथाओं से ग्रन्थ भरे पड़े हैं| उस पुत्र को अपनी ही छाओं में कुटीर में देख मैं जार – जार हो जाती थी|मेरी भूमि पर जन्म लेने वाली पीढ़िया अपने माता पिता से पूछते – “क्या यही वो अयोध्या है जहा रामराज्य था, जहाँ के कोने – कोने में समृद्धि थी दुःख दारिद्रय का नाम न था ?” तो इन प्रश्नो के बाणों से मैं लहूलुहान हो उठती|बड़ी श्रद्धा से जब सैलानी यहाँ आते और यहाँ की दुर्दशा, उपेक्षा उनके नेत्रों से व्यक्त होती, और सहसा जब वो बोल उठते – ” क्या यही है वो अयोध्या नगरी?” मैं मानो हज़ारो मौत मर जाती||इसी को नियति मान, मैं स्वयं को इतिहास क पन्नो में ही छुपा लेना चाहती थी तभी मानो कुछ ऐसा हुआ किसी क भगीरथ प्रयास से मुझे भी संजीवनी मिल गयी| कसक तो हृदय में व्याप्त है पर, आज अपने नगरवासीयों के नेत्रों में वही ख़ुशी और श्रद्धा देख मैं मानो शाप मुख्त हो गयी|मैं अयोध्या नगरी शाप मुख्त हो गयी|
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