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दोस्तों हम अपने लिए इतने ऊंचे लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं कि जीवन में आए दिन आने वाली खुशियों पर, सफ़लताओं पर जी खोलकर खुश भी नहीं हो पाते हैं। उनका जश्न भी नहीं मना पाते हैं यह सोचकर कि मेरी मंज़िल तो इतनी बड़ी है और यह सफलता तो बहुत मामुली। पर कई बार ऐसा होता है कि इन मामूली सफ़लताओं में ही बड़े लक्ष्य की चाबी छुपी होती है, जो उनका द्वार खोलती है। इन बातों के साथ मैं आप लोगों के समक्ष अपनी नयी कविता “अंतर्द्वंद्व” लेकर आई हूं तथा आशा करती हूं कि इसको भी आप सभी का स्नेह मिलेगा |
जीवन में,
बड़ी खुशियाँ कम मिली उनका ग़म करूं?
या छोटी छोटी खुशियाँ झोली भर मिली, इसका जश्न करूं?
जो नहीं मिला है,
उसका कितना इंतज़ार करूं?
जो मिल रहा है,
क्यों न उसका सम्मान करूं?
क्या कुछ हो सकता था ,
गर ऐसा होता, गर वैसा होता,
कितना इसका हिसाब करूं?
बीती बातों को याद कर
कितना मन निराश करूं?
निराशा के इन घने कोहरे को हटाना है,
नए उत्साह के फूल मन में खिलाना है,
मंज़िलों का क्या है वो तो मिलती हैं,
बस सही रास्ते पर मजबूत कदम बढ़ाना है।
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