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नारी हूँ मैं
कितने रंग है मेरे
कितनी मेरी कहानी है,
कितना तुमने जाना है
कितनी अभी अनजानी है.
खिलखिल करके आँगन में
दौड़ती – भागती खेलती थी,
दादी, चाची, बुआ सभी की
भौहे क्यों तन जाती थी?
वही हूँ मैं जिसने-ख़ुशी ख़ुशी
तुम सब की बातें मान ली,
अपनी पसंद नापसंद छोड़
घाघरा- चुनरी बाँध ली.
शिक्षा से मिले पंख मुझे
अब तो उन्मुक्त उड़ना चाहती थी,
इस विशाल गगन की ऊंचाई
अपने पंखो से मापना चाहती थी.
देखा पापा की चिंता
उनको थी शादी की जल्दी,
अभी और भी बहने है –
यही सोच लगा ली हाथों में हल्दी.
नयी समस्या – नया माहौल
नयी जिम्मेदारी आयी थी,
सबको खुश करने को
सारी ऊर्जा लगायी थी.
सबको खुश करने को
कतरा – कतरा लगा दिया लहू का,
फिर भी सुनती थी सबसे
इसमें, कोई लक्षण नहीं है बहू के.
किसी ने ना देखा त्याग मेरा
किसी को ना मेरी पीड़ा हुई
जब तब जिसने तिसने कहा –
“बहू भी कभी बेटी हुई”
बेटी बहू और पत्नी बनकर
मैंने हर कर्त्तव्य निभाया
कदम – कदम पर सबने उसमे
सिर्फ कमिया ही निकला.
दुसरो की नज़रो से
कब तक मैं परखी जाऊं,
अपनी ताकत अपनी सोच से
क्यों ना अपनी पहचान बनाऊं.
क्यों मैं सोचु दुनिया भर की
क्यों मैं सबकी परवाह करूँ
उन छोटी आखों में जो थे सपने
क्यों ना उनको साकार करूँ
नोट: हिंदुस्तान दैनिक में २४ मई, २०१७ को प्रकाशित
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