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बदलती कहावते

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बदलती कहावते

परिवर्तन सन्सार का नियम है। और वक्त के साथ बदलना न केवल जरुरत बल्कि अनिवार्य भी है। पुरानी कहावतें किस तरह आधुनिक समाज में अपनी छाप छोड रही है। यही दिखाने की चेष्टा कर रहा हूँ।

सौ सुनार की तो एक लुहार की।1।
सौ तुम्हारी तो एक हमारी।

अध जल गगरी छ्लकत जाए।2।
एक बूँद कहीं मिल तो जाए।

एक मछली पूरें तालाब को गंदा करती है।3।
एक सडा हुआ आम सभी ताजें आमों को सडा सकता है।

तिनका तिनका जोड कर घोसला लियो बनाए।4।
घोसला तो बन गया पर थानेदार दिए तुडवाए।

सावन के अंधे को सब हरा हरा नजर आता है।5।
भूखे मरे गरीब सरकार का क्या जाता है।

आगे कुआं पीछे खाई।6।
दे दो तो भ्रष्टाचार ना दो तो अत्याचार।

बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद।7।
नेता क्यों माने गरीब की बात।

दूर के ढोल सुहाने लगते है।8।
नेता बनो कानून सन्सद में बनते है।

घर का भेदी लंका ढाए।9।
रावण मरन को तरप रहा कहीं राम नजर ना आए।

गरीब कि लुगाई पूरे गांव की भौजाई।10।
क्या इसे भी पारिभाषित करना पडेगा। इतने तो मूर्ख नही दिखते मेरे भाई।

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