अन्ना हजारे जिनको शायद आज से पांच छह महीने पहले कोई खास जानता भी नहीं था आज वह देश के सभी न्यूज चैनलों पर दिन भर छाए रहते हैं. रामलीला मैदान से मीडिया के कैमरे एक पल के लिए भी उन पर से हटते नहीं. आलम यह है कि आज अन्ना को देश का बच्चा-बच्चा जानने लगा है. चाहे किसी को लोकपाल बिल नाम की बला के बारे में पता हो या ना हो उसे अन्ना हजारे के बारे में जरूर पता होता है.
न्यूज चैनलों, अखबारों और इंटरनेट पर अन्ना की आंधी का असर देखते ही बनता है. कल तक जिस युवा पीढ़ी को लोग कोसते थे कि वह मतलबी है, उसे आज अन्ना हजारे ने अपना सबसे बड़ा हथियार मान लिया है. और मानें भी क्यूं ना अन्ना हजारे के आंदोलन को समर्थन देने में युवाओं की भागीदारी देख कर साफ हो गया है कि भारतीय युवा पीढ़ी अब जाग चुकी है. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमानस को खड़ा करने के अलावा अन्ना के आदोलन ने एक और सीख दी है कि साख वाला व्यक्ति अगर अगुआई करे तो उसके साथ नई पीढ़ी भी जुड़ने को और अनुशासित रहने को तैयार है. जिन लोगों ने 1990 में पूरे उत्तर भारत में फैले आरक्षण विरोधी आंदोलन को देखा है, उन्हें पता है कि उस समय क्रोध और क्षोभ से भरे नौजवानों ने राष्ट्रीय और निजी संपत्ति को कितना नुकसान पहुंचाया था. तब आंदोलनकारी युवाओं की एक ही कोशिश होती थी कि कब मौका मिले और अपना गुस्सा सरकारी संपत्ति पर निकालें.
1975-76 के समय दिल्ली के रामलीला मैदान पर ही जयप्रकाश नारायण ने भी सरकार के खिलाफ एक जन-आंदोलन किया था जिसकी वजह से तत्कालीन सरकार को देश में इमरजेंसी घोषित करनी पड़ी थी. इतिहास अगर खुद को दोहराता है तो दिल्ली के रामलीला मैदान में जो कुछ इस समय हो रहा है उससे यूपीए सरकार को बहुत बड़ा खतरा है. 74 वर्ष के अन्ना हजारे ने देश की सरकार को कुछ ही दिनों में इतना झुकने पर विवश कर दिया है, जितना वह अपने शासन में कभी नहीं झुकी थी.
74 साल के बूढे़ रिटायर्ड फौजी किशनराव बाबूराव हजारे ने मुल्क को एक उम्मीद थमा दी है. आंदोलन के मूल्य पुराने हैं, तरीका आजमाया हुआ है, मगर भाषा नई है और शामिल लोगों की समझ विलक्षण है. लोग सरकार के पैंतरेबाजी और पेशबंदी पढ़ रहे हैं और चिढ़ रहे हैं. भ्रष्टाचार अमूर्त है, लेकिन गुस्सा जाहिर करने के प्रतीक बड़े पैने हैं. सरकार और राजनीति के कुछ चेहरे सबके गुस्से का निशाना हैं.
संयोग से आपातकाल और इस आदोलन के प्रतीकों में बड़ी गहरी समानता है. दुष्यंत फिर याद आ जाते हैं, ‘एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है, एक शायर यह तमाशा देखकर हैरान है.’ तब गुड़िया इंदिरा गाधी थीं आज कौन है, यह रामलीला मैदान पहुंच कर जाना जा सकता है.
आंदोलन तो खूब हुए मगर इतने लोगों ने शायद ही एक साथ कभी खुद को, मैं गांधी हूं, मै जेपी हूं, मैं मंडेला हूं, नहीं कहा होगा, जितने लोग आज खुद को अन्ना बता रहे हैं. नेतृत्व का यह साधारणीकरण अनोखा और करिश्माई है.
अन्ना इतने साधारण हैं, इतने गैर करिश्माई हैं, इतने आम हैं कि हर कोई अन्ना बन जाता है. अन्ना के शब्द सीमित हैं, भाषण सामान्य है. ज्ञान का पुट कम है. अन्ना का खाटीपन देखकर हर कोई खुद को अन्ना बना लेता है.
लगातार बढ़ते अन्ना के समर्थन के बाद सरकार अब लोकपाल पर अपने रुख में नरमी के लिए मजबूर हो गई है. अन्ना को मनाने के लिए लगे मध्यस्थों की कोशिश के बाद अब समझौते की राह बनती भी दिख रही है.
आज अन्ना हजारे के अनशन का आठवां दिन है. तीन दिनों की छुट्टी के बाद आज लोगों का जमावड़ा रामलीला मैदान में कम हुआ है लेकिन यह खत्म नहीं हुआ है. जो लोग अभी भी वहां मौजूद हैं उनमें उत्साह देखने लायक है. उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही सरकार और अन्ना की टीम में सुलह हो जाए.
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