“जब कोई भी जनभावनाओं को सुनने को तैयार ना हो, जब सरकार केवल व्यापारी की भूमिका अदा करने लगे, जब राजनेता भक्षक बन जाएं तो ऐसे में केवल जन विद्रोह ही हमें मुक्ति दिला सकती है उस अराजक रक्तशोषक व्यवस्था से जहां हर नागरिक कम से कम जीने का अधिकार तो पा ही सकेगा.”
अभी-अभी भारतीय राजनीति में एक राजनेता का तमगा लिए सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल आजकल बड़ी तेजी से एक लोकनेता के रूप में सक्रिय होते जा रहे हैं. आने वाले राजनीतिक समीकरण को देखते हुए और जनता के सामने अपने आप को एक बेहतर विकल्प के तौर पर रखने के लिए केजरीवाल एक समय में कई मुद्दों को उठा रहे हैं. जहां एक तरफ वह राजनेताओं और उनके रिश्तेदारों द्वारा किए गए काले करतूतों पर से भी पर्दा हटा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ वह आम लोगों के बीच जाकर आम मुद्दों को जोर शोर से उठाकर उसे मुख्य धारा में लाने की कोशिश कर रहे हैं या फिर कहें उन मुद्दों को अपने तरीके से हैंडल कर रहे हैं.
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मुक्ति का मार्ग तैयार होने लगा है
अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में बिजली और पानी की बढ़ी कीमतों के खिलाफ बिजली और जल सत्याग्रह शुरू कर दिया है. इसके तहत वह लोगों से यह अपील कर रहे हैं कि वे बिजली और पानी का बिल जमा न करें. ऐसी स्थिति में यदि सरकार लोगों के घरों में बिजली का कनेक्शन काटती है तो वहां स्वयं केजरीवाल और उनके समर्थक कनेक्शन जोड़ते हुए नजर आ रहे हैं. बिजली और पानी को लेकर अरविंद ने जो अभियान छेड़ रखा है उसको लेकर राजनीतिक हलकों में खलबली मची हुई है. कोई इनके अभियान का ऊपरी मन से समर्थन कर रहा है तो कोई यह कहकर विरोध कर रहा है कि कनेक्शन जोड़कर कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं है.
महात्मा गांधी की रणनीति है यह
वैसे हम आपको बता दें अरविंद जो कर रहे हैं इसके पीछे महात्मा गांधी का वह आंदोलन जुड़ा हुआ है जब 1930 में गांधी जी ने दांडी मार्च निकालकर लोगों से यह अपील की थी कि वह सरकार को नमक कर अदा न करें तथा अपनी अवश्यकता की पूर्ति के लिए स्वयं नमक बनाएं. महात्मा गांधी का यह आंदोलन उस गलत और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ था जिससे अंग्रेज अपने और अपनी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए भारतीयों का खून चूसते थे. गांधी जी का यह आंदोलन पूरे देशभर में इतना लोकप्रिय हुआ कि लोग अन्य दूसरे कर जिसमें चौकीदारी और वन कर भी शामिल हैं, न देकर गांधी जी के इस आंदोलन के साथ जुड़ गए.
राह तो नजर आएगी
गांधी के इस आंदोलन ने उस समय तत्कालीन भारत में तानाशाही सरकार के खिलाफ जनसंवेदनाओं से जुड़े मुद्दों को लेकर क्रांति की लहर पैदा कर दी जिसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि क्रूरतम दासता की बेड़ियों से देश को आखिरकार मुक्ति मिली. ठीक उसी तरह ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं केजरीवाल का आमजन की समस्याओं और जरूरतों को लेकर उठाया गया यह मुद्दा अब तब की भ्रष्टतम सरकार से मुक्ति का माध्यम न बन जाए.
यहां एक बात और है कि पक्ष और विपक्ष के सभी दल सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जनहित को तिलांजली दे रहे हैं. ऐसे में सशक्त तीसरे विकल्प का होना समय की मांग बनती जा रही हैं. लेकिन यहां सवाल उठता है कि अरविंद और उनकी अघोषित पार्टी आने वाले 2014 के चुनाव में एक सशक्त विकल्प बनकर तैयार हो सकती है या नहीं. वर्तमान की स्थिति को देखें तो यह कहा जा सकता है कि अंतिम परिणति कम से कम मरहम के रूप में ही सही किंतु अपरिहार्य प्रतीत हो रही है कि भले ही हालात अभी पूरी तरह से तीसरे विकल्प के पक्ष में नहीं हैं लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि तीव्र संचार और संपर्क तथा नव जागरुकता के नए माहौल में परिवर्तन अवश्यंभावी है.
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