कभी सत्ताधारी और विपक्षी दलों की बत्ती गुल करने वाले और कभी कंपनियों की नींद हराम करने वाले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल क्या धीरे-धीरे बेरंग होते जा रहे हैं? इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि दिल्ली में बिजली और पानी के बढ़े हुए बिल के खिलाफ अरविंद अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे हुए हैं. आज उनके अनशन का सातवां दिन है लेकिन उनके इस आंदोलन को लेकर न ही भाजपा और कांग्रेस की कोई प्रतिक्रिया आई है और न ही अब तक मीडिया ने कोई विशेष कवरेज दी है.
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अनशन पर बैठे केजरीवाल की हालत खराब होती जा रही है. डॉक्टरों के मुताबिक उनका वजन छह किलो कम हो गया है. फिलहाल उनकी हालत स्थिर है लेकिन कभी भी बिगड़ सकती है, क्योंकि उनका ब्लड शुगर तेजी से गिर रहा है. हालांकि डॉक्टर उनके स्वास्थ्य पर नजरें बनाये हुए हैं.
कानून जैसे जटिल विषय को सरलता से आम आदमी को समझाने वाले अरविंद आज खुद को आमजन से दूर पा रहे हैं. जो लोग पहले सैंकड़ों हजारों की संख्या में अरविंद के आह्नान करने पर दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ते थे वही लोग आज उनसे अलग हटते नजर आ रहे हैं. मीडिया, जिसे अरविंद अपने सफल आंदोलन का सबसे बड़ा हथियार मानते थे, कहीं न कहीं उसने भी चुप्पी साध ली है.
अब सवाल उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि सड़क से संसद भवन तक की राजनीति को गर्माने वाले अरविंद इतने फीके पड़ते जा रहे हैं. जानकार इसके पीछे उनकी नीतियों में खामियों को बताते हैं. अरविंद ने जब से अपनी राजनीति को चमकाने की कोशिश की है तब से उन्होंने अपने करीबियों को अपने से दूर कर लिया है. अन्ना हजारे, जिनके कंधों पर बंदूक रखकर वह गोली चलाते थे, अपनी राजनीति महत्वाकांक्षा के आगे उन्हें भी अपने से दूर कर दिया. उनके विरुद्ध जाकर एक नई पार्टी बनाई. शायद यही बात अन्ना के चाहने वालों को नागवार गुजरी.
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उनकी अन्य खामियों में उनके द्वारा सभी दलों का विरोध करना भी शामिल है. उनका मानना था कि देश की सभी राजनीति पार्टियां भ्रष्टाचार और घोटाले में लिप्त हैं इसलिए इनका विरोध होना ही चाहिए. वह व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते थे लेकिन जब उनकी ही पार्टी के कुछ लोगों पर आरोप लगता है तो वह अपने पार्टी स्तर की जांच की बात करके चुप्पी साध लेते थे. उनकी खामियों में एक और खामी ‘लोकपाल’ का दामन छोड़ना है. अरविंद को नहीं भूलना चाहिए कि जिस मुद्दे को लेकर उन्होंने लोकप्रियता हासिल की उसे छोड़कर उन्होंने दूसरे मुद्दे को थाम लिया जिनसे उनके आंदोलन में भटकाव पैदा हो गया.
वैसे अरविंद को समर्थन देने वाले लोग उनकी इन खामियों को नकारते हैं. उनका मानना है कि अरविंद को यदि राजनीति में अपने पैर जमाना है तो उन्हें जनता के बीच नई उम्मीद जगानी होगी. उन्हें लोकपाल के अलावा वह सभी मुद्दे उठाने होंगे जिनका संबंध आमजन से है. जो भी हो लेकिन केजरीवाल के बारे में फैसला आखिरकार उसी जनता को करना है जो फिलहाल उनमें संभावनाएं टटोलने में लगी है. उसका फैसला क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है.
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