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आजादी के लिए चिल्लाने वाले ‘जेएनयू’ ने, स्वतंत्र अभिव्यक्ति को खुद किया अपमानित

कहते हैं कि कोई एक कहानी सभी कहानियों का समावेश होती है. इसी तरह इन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चल रहा मुद्दा, लुटियंस दिल्ली से होता हुआ मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है. जो लोग विद्यार्थियों के इन असमर्थनीय कार्यों का बचाव कर रहे हैं उनकी राज-निष्ठा पर भी विभिन्न तरह के नजरिए देखने को मिल रहे हैं. इस ज्वलंत मुद्दे से उपजे आवेश ने आम जन को समावेशित करके देश पर कटाक्ष करने जैसी स्थिति में ला खड़ा किया है. ये वर्ग चाहता है कि लोग सिर्फ इनकी सुने और सिर्फ इनकी कहानी पर यकीन करें.


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लेकिन दूसरी तरफ, कई दूसरी कहानियां भी बताए जाने की जरूरत है जिससे कि दूसरा पहलू भी साफ हो सके. इस बारे में कुछ लोगों का मत है कि अनुदान से चलने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों को क्या केवल स्वतंत्र विचार, अभिव्यक्ति और संवाद की आड़ में इस तरह के क्रियाकलाप करने की छूट है. इसी तरह इसका दूसरा पहलू भी बताए जाने की जरूरत है कि जिससे देश की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले और पुलिस द्वारा सख्त कार्रवाई को झेल रहे इन विद्यार्थियों के प्रति लोगों को सहानुभूति रखने की जरूरत है.

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उल्लंघनों का इतिहास

ये ऐसा पहला मामला नहीं है जहां जेएनयू को आम जन मानस की विरोध और गुस्से का शिकार होना पड़ा है बल्कि इस तरह के जनविरोधी कार्यों की लम्बी सूची है. 1999 में छिड़े कारगिल युद्ध के दौरान भी वामपंथी विचारधारा को मानने वाले विद्यार्थियों ने भारत-पाक मुशायरा का आयोजन किया था. जिसमें भारत और रक्षा बलों के बारे में कड़े शब्दों और अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया था. इस दौरान वहां मौजूद दो सिपाही भाईयों ने कड़ा विरोध जताया था. इसी बीच भीड़ और उन दोनों के बीच चलती गहमा-गहमी के कारण, उनमें से एक ने अपनी पिस्तौल भी निकाल ली थी. इसके घटना के एक दशक बाद साल 2010 में वामपंथी विचारधारा को मानने वाले विद्यार्थियों ने दंतेवाडा के माओवादियों द्वारा 76 जवानों के संहार करने का जश्न मनाते हुए रात भर चलने वाले एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. इसके अगले साल मशहूर लेखिका अरूणधंति रॉय ने सुरक्षा बलों के संहार को सही ठहराते हुए जेएनयू की सराहना भी की थी. यानि जेएनयू में इस तरह के विवादस्पद कार्यक्रमों का एक लम्बा इतिहास रहा है.


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जिसमें कश्मीर घाटी को देश से अलग करने की तमिल ईलम संगठन की मांग का समर्थन, नॉर्थ-ईस्ट में हिंदू धर्म के प्रति बिछोह रखने की अलगावादियों की विचारधारा समर्थन आदि विवादस्पद मुद्दे शामिल हैं. ये कहना गलत नहीं होगा कि जेएनयू में स्वतंत्र विचार, बहस और वक्तव्य की विचारधारा रही है. जो कभी-कभी आम जन के विचारों से काफी अलग लगती है. यही विचारधारा जेएनयू की स्थापना के आधारभूत सिद्धांत का हिस्सा रही है. वहीं अगर बात करें, 9 फरवरी को हुए घटनाक्रम की, जहां ‘भारत की बर्बादी से कश्मीर की आजादी तक’ जैसे नारे वामपंथी विचारधारा से प्रेरित विद्यार्थियों के द्वारा लम्बे समय से चली आ रही धारणा को व्यक्त करते हैं. इस कारण से ही अधिकारियों ने उनके विरूद्ध कार्रवाई की. वहीं दूसरी तरफ जेएनयू में वामपंथी छात्रों के विरूद्ध भारी आक्रोश भी देखने को मिला. साथ ही छात्रसंघ के अध्यक्ष को कड़ी हिरासत में लेते हुए राष्ट्रद्रोह की धारा लगाई गई.इस मामले में पुलिस और सरकार की पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं. क्योंकि सभी अपना काम बहुत संदेहात्मक तरीके से कर रहे हैं. लेकिन यहां ये समझने की जरूरत है कि जेएनयू के सभी छात्र ‘हम होंगे कामयाब’ गीत नहीं गाते और न ही यहां के शिक्षक इस तरह की विचारधारा के बैनर को लिए अपनी पहली निष्ठा मानकर चलते हैं.

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आक्रोश

किसी भी विश्वविद्यालय या इसके किसी भी समुदाय के विरुद्ध फैलाए गए दुष्प्रचार का कोई उद्देश्य नहीं होता. बागियों के परिसरों में उठे इस तरह के मुद्दे को चुपचाप सुलझाया जा सकता था. लेकिन मीडिया की घुसपैठ ने इस मामले को और भी पेचीदा बना दिया. साथ ही ये पूरा घटनाक्रम सस्ते रोमांच की चाह रखने वाले लोगों द्वारा नियंत्रित भी लगता है. दुख का विषय ये है कि पूरा घटनाक्रम बड़ी तेजी इस मोड़ तक पहुंच गया. जेएनयू के विरुद्ध उपजे आक्रोश को गलियों, दफ्तरों आदि जगहों में महसूस किया जा सकता है.अंत में नजर डाले कि हम लोग जेएनयू पर कितना खर्च करते है तो साल 2012-13 और 2015-16 में करीब 1300 करोड़ रुपए का इस विश्वविद्यालय में भुगतान किया गया है. इस तरह ये कहना गलत नहीं होगा कि शैक्षिक आजादी और स्वतंत्र संवाद को सही माना जा सकता है दूसरी तरफ यहां के शिक्षक और छात्र दोनों की करदाता के प्रति एक जवाबदेही भी बनती है. इस जवाबदेही को आतंकवादियों का समर्थन करके पूरा नहीं किया जा सकता.


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दूसरी ओर इतनी रियायती दरों पर सुख-सुविधा से भरे परिसर का उपयोग करते हुए देश के प्रति उपेक्षा का भाव भी नहीं रखा जा सकता. इस तरह स्वतंत्र वक्तव्य की विचारधारा रखने वाले वामपंथियों को, दोनों पहलुओं पर समान रूप से गौर करना होगा. वो काम वो खुद के लिए नहीं कर सकते, जो वो दूसरों के लिए मना करते हैं. वास्तव में, ये एक कड़वा सच है कि आजादी और वामपंथी दोनों का रूख एक दूसरे के लिए विरोधाभास ही लगता है. इसलिए जब जेएनयू के वामपंथी अगर आजादी की ‘घेराबंदी’ की दुहाई देते हैं तो केवल उनके प्रति अफसोस जताया जा सकता है. ये कहना गलत नहीं होगा कि जेएनयू को पुर्नजीवित करने की जरूरत है. सबसे पहले इसे  आर्थिक सरोकारों को नियंत्रित करने वालों से मुक्ति दिलवानी होगी. इस बड़ी चुनौती को पूरा करने में अगर सरकार असफल होती है, तो करदातों को जोर देकर ये बात जतानी होगी कि वो फर्जी असंतोष और नकली क्रांति का अब और हिस्सा नहीं बन सकते…Next

(कंचन गुप्ता)

लेखिका राजनीतिक समीक्षक है

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