एक बहुत पुरानी कहावत है कि आग लगने पर कुंआ नहीं खोदना चाहिए बल्कि कुएं का प्रबंध पहले ही कर लेना चाहिए. लेकिन लगता है दिल्ली सरकार को इस कहावत से कोई लेना-देना ही नहीं. इसलिए तो वह आग लगने के बाद भी कुंआ खोदने की नहीं सोचती. हाल ही में पूर्वी दिल्ली में हुए किन्नर सम्मेलन में ऐसी बात सामने आई जिससे दिल्ली शर्मसार हो गई.
कदम-कदम पर उपेक्षा और अनदेखी के शिकार किन्नर राजधानी में हुए एक भीषण अग्निकांड का शिकार बन गए. पूर्वी दिल्ली में किन्नर महासम्मेलन के दौरान शार्ट सर्किट से पंडाल में लगी आग में झुलसकर 16 किन्नरों की मौत हो गई. बात अगर सिर्फ मौत की होती तो चलता पर जब मौत ऐसी वजह से हो जिसे आराम से बिना किसी मुश्किल से टाला जा सकता था तो बात को विवाद बनना ही था. आज आग में किन्नर समुदाय के लोग जले हैं लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि जिस सामुदायिक भवन का इस्तेमाल समाज का हर तबका शादी-ब्याह जैसे आयोजनों के लिए करता है उसमें आगे कभी ऐसी दुर्घटना नहीं होगी और ऐसे सामुदायिक भवन कितने सुरक्षित हैं?
मामला क्या था
यह हादसा न सिर्फ आपात स्थिति में प्रशासनिक तैयारियों की सच्चाई उजागर करता है, अपितु सरकारी लापरवाही का भी जीता जागता उदाहरण है. आग लगने की यह घटना 20 नवंबर, 2011 की शाम की है. नंदनगरी ई-2 ब्लॉक स्थित सामुदायिक भवन में 15 नवंबर से अखिल भारतीय किन्नर समाज सर्वधर्म महा सम्मेलन चल रहा था कि तभी वहां शॉर्ट सर्किट के कारण आग लग गई. जब आग लगी तब महासम्मेलन में मौजूद किन्नरों में से करीब पांच हजार वहां इबादत कर रहे थे. आग लगते ही लोगों ने पंडाल से बाहर जाने की कोशिश शुरू कर दी लेकिन पंडाल से निकलने का एक ही करीब बीस फीट का रास्ता होने के चलते भगदड़ का माहौल हो गया. रेशमी कपड़े से बने पंडाल में तेजी से आग फैल गई और लोग उतनी तेजी से बाहर नहीं निकल पाए. हादसे में 16 किन्नरों की मौत हो गई, जबकि 50 से अधिक घायल हो गए.
ना मेरी गलती – ना मेरी गलती
कुछ ऐसा ही हाल है इस हादसे के बाद. कोई भी विभाग अपनी जिम्मेदारी मानने से इंकार कर रहा है. दिल्ली अग्निशमन सेवा के निदेशक की मानें तो कार्यक्रम की दमकल विभाग से अनुमति नहीं ली गई थी. वहीं, किन्नरों की अध्यक्ष ने प्रशासन पर सहयोग न करने का आरोप लगाया है और कहा है कि उनके आवेदनों को गंभीरता से नहीं लिया गया.
बड़ी संख्या में लोगों की जान लेने वाले इस हादसे के लिए कौन जिम्मेदार है, यह एक बड़ा प्रश्न है. यह सही है कि किसी भी हादसे की स्थिति में प्रथम दृष्टि में आयोजकों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है और इस मामले में भी आयोजकों को प्रशासन से अनुमति लेने के बाद ही कार्यक्रम शुरू करना चाहिए था. लेकिन आयोजकों के इस आरोप को भी खारिज नहीं किया जाना चाहिए कि उनके आवेदनों को गंभीरता से नहीं लिया गया. सवालों के कठघरे में प्रशासन भी है. क्या बिना सभी संबंधित विभागों की अनुमति के सामुदायिक केंद्र में कोई कार्यक्रम आयोजित किया जा सकता है? यदि ऐसा हो रहा है तो यह निश्चित ही बड़ी प्रशासनिक चूक है.
बदहाल सामुदायिक भवन
दिल्ली में एमसीडी अपने सामुदायिक भवनों से बहुत पैसा बनाता है. इन्हें रिजर्व करने के लिए आम आदमी को अपनी जेब तबियत से ढीली करनी पड़ती है. लेकिन इसके बाद भी उसे मिलता क्या है? सुरक्षा के नाम पर अगर पूरे सामुदायिक भवन में दो तीन आग बुझाने वाले यंत्र भी मिल जाएं तो बहुत बड़ी बात है. यह बात कागजी नहीं जमीनी स्तर की है. दिल्ली के किसी भी सामुदायिक भवन में सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं होता. इसी वजह से जब कभी सामुदायिक भवनों में हादसे होते हैं तो उससे कई लोग पीड़ित होते हैं. सामुदायिक भवनों की सुरक्षा उस व्यक्ति या पार्टी पर थोप दी जाती है जिसने उसे रिजर्व किया हो. अब मान लीजिए एक व्यक्ति जो अपनी बेटी की शादी कर रहा हो वह मंडप में बाकी के काम देखे या फिर इस बात का ख्याल रखे कि कहीं आग तो नहीं लग जाएगी, कोई बंदूक लेकर मंडप में तो नहीं घुस जाएगा आदि. अगर इन सब मौलिक चीजों का भी एमसीडी ध्यान नहीं रख सकती तो वह इन सामुदायिक भवनों को रिजर्व कराने के लिए इतने पैसे क्यूं लेती है?
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