भारतीय रेल दुनियां के सबसे बड़े और विशाल रेलवे लाइनों में शुमार है. भारतीय यातायात की रीढ़ कही जाने वाली रेलवे सेवा ने ऐसे कई कीर्तिमान हासिल किए हैं जिनपर हमें गर्व है पर एक कड़वा सच और बदनुमा दाग इस पर यह भी है कि यह अप्रैल 2010 से लेकर जुलाई 2011 तक करीब 450 जानें ले चुका है. यह संख्या इससे भी ज्यादा होगी अगर हम प्रतिदिन रेलवे क्रांसिंग से कटते लोगों को जोड़ दें तो. पर ऐसा क्यूं हो रहा है देश की रेलवे सेवा के साथ? क्या भारत में तकनीक अभी भी कम है या देश में भ्रष्ट प्रशासन के कीड़े से रेलवे खराब हो रही है?
10 जुलाई, 2011 को देश में दो बड़े रेल हादसे हुए. पहले हादसे में कालका एक्सप्रेस “काल” का एक्सप्रेस बनी. हावड़ा से कालका जा रही 12311 अप हावड़ा-कालका मेल फतेहपुर व कानपुर के बीच मलवां स्टेशन पर दुर्घटनाग्रस्त हो गयी. माना जा रहा है कि ट्रेन में आपात ब्रेक लगाए जाने से हादसा हुआ. हादसे में इंजन के बाद लगी चौदह बोगियों के पटरी से उतरते हुए एक के ऊपर एक चढ़ जाने से स्वीडन के एक यात्री समेत 40 लोगों की मौत हो गई, वहीं 300 से अधिक यात्री घायल भी हुए है. मलवां स्टेशन फतेहपुर से 17 तथा कानपुर से 60 किमी दूर है.
दूसरी ओर असम के कामरूप जिले में रंगिया और घागरापार के बीच धातकुची में गुवाहाटी से पुरी जा रही एक्सप्रेस ट्रेन आईईडी ब्लास्ट के चलते पटरी से उतर गई. इसमें 80 से ज्यादा लोगों के घायल होने की खबर आई है.
देश में इन हादसों ने एक बार फिर सोचने पर विवश कर दिया है कि आखिर किन वजहों से भारतीय रेलवे ‘जीरो एक्सिडेंट पॉलिसी’ पर काम नहीं करती है. एक बार फिर एक हादसा मानवरहित क्रॉसिंग की वजह से हुआ है. भारत में रेलवे को सक्रिय हुए 150 से ज्यादा साल हो गए हैं पर अभी तक रेलवे मानव रहित क्रॉसिंग को खत्म्ा नहीं कर पाया है. रेलवे को देशभर में ऐसे करीब 14 हजार क्रॉसिंग खत्म करने हैं. इस समय देश में कुल 32,694 समपार फाटक है जिनमें 14,853 मानवरहित हैं. 2010-11 में मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग के चलते हुए हादसे में 229 लोगों की मौत हुई थी वहीं 2011-12 में 95 लोग अपनी जान गंवा बैठे हैं. पिछले सप्ताह ही उत्तर प्रदेश के कांशीराम नगर जिले में एक ऐसे ही हादसे में 38 लोग मारे गए थे और 30 जख्मी हो गए थे.
इसके साथ ही रेलवे की इमरजेंसी सेवा और आपदा राहत में बदइंतजामी का पता इसी से चलता है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद भी वहां राहत रेल तीन घंटे बाद पहुंची जबकि कानपुर और इलाहाबाद जैसे बडे रेलवे स्टेशन हादसे की दूरी से बहुत करीब थे. वह तो भला हो सेना के जवानों का जो उनके आने के बाद राहत कार्यों में तेजी आई. और ऐसा पहली बार नहीं है कि रेलवे की मदद के लिए सेना ने उनसे अधिक कार्य किया हो. अगर सेना की बार-बार ऐसी जरुरत पड़ती है तो क्यूं नहीं रेलवे अपनी सुरक्षा सेना के हवाले कर देती है.
भारत में इस वक्त रेलमंत्री जैसा बेहद अहम पद रिक्त पड़ा है. रेलवे राज्य मंत्री बना कर पार्ट टाइम काम निकाला जा रहा है. प्रधानमंत्री जी देश की सत्ता को चला-चला कर वैसे ही इतने लाचार हो चुके हैं और ऊपर से उन पर और एक बोझ रेलवे बोर्ड का है.
दुघर्टना में मृतकों के परिवारीजन को सात-सात लाख देने की घोषणा कर रेलवे ने जैसे अपने दायित्व का निर्वाह कर दिया. सरकार के लिए एक इंसान की कीमत सात लाख है. सात लाख लो और मरो लेकिन यह कीमत भी आपको आराम से नहीं मिलेगी. इसके लिए भी कई सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाओ, हजारों सार्टिफिकेट दिखाओ, डेथ सार्टिफिकेट दिखाओ.
रेलवे की ऐसी लापरवाही ने आम इंसान के दिलों में भय भर दिया है. कल तक जिस रेलवे के ऊपर नाज था आज उसी रेलवे को सब शक और डर की निगाहों से देखते हैं. यात्रा से पहले पूजा करके निकलते हैं कि कहीं कोई हादसा ना हो जाए.
आखिर कब तक रेलवे मौत का ऐसा खेल खेलती रहेगी. आखिर कब देश में इंसानों की जान का मोल बढ़ेगा. यूपीए सरकार अपनी कुर्सी की वेदी पर और कितनों को बलि चढ़ाएगी.
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