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पतन का रास्ता भाजपा ने खुद तैयार किया

bharatiya janata party 1कर्नाटक विधान सभा चुनाव के नतीजे लगभग साफ हो चुके हैं और सत्ताधारी भाजपा की करारी हार भी लगभग तय है. ऐसे में मनन-चिंतन का समय है कि आखिरकार ऐसा क्या हो गया जो भाजपा तीसरे स्थान पर खिसकती नजर आ रही है. कई सारे सवाल आमजन के मन में हैं जिनके जवाब तलाशने की कोशिश शुरू हो चुकी है. इसी को देखते हुए पेश हैं कुछ खास ऐसे बिंदु जिनके कारण भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ रहा है.


क्रिकेट के मैदान में चिप्स और कोल्डड्रिंक का भगवान


नहीं चल पाया जातियों पर बीजेपी का जादू

2008 में भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर कर्नाटक में लिंगायत, दक्षिण में बंट्स और बिल्लवा के अलावा अनुसूचित जातियों को भी अपने साथ खड़ा कर लिया था. इस फॉर्मूले के चलते उसे 224 में से 110 सीटें मिलीं लेकिन इस चुनाव  में इन्हीं चार जातियों पर बीजेपी का प्रभाव नहीं चल पाया.


जातीय समीकरण येदुरिपया के जाने से बिखर गए

जिस जातिगत समीकरणों को ठीक से साधकर बीजेपी ने 2008 में कर्नाटक की सत्ता हासिल की थी वह समीकरण बीएस येदियुरप्पा के अलग हटने से बिखरती गई. येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से आते हैं जो एक सबसे बड़ा वोट बैंक है लेकिन येदियुरप्पा के भाजपा को छोड़ने के बाद यह समुदाय भी भ्रम में पड़ गया नतीजा बीजेपी की हार के रूप में सामने आने लगा है.

हार से बचने के लिए भाजपा ने एक अन्य लिंगायत नेता और कर्नाटक के मौजूदा मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार को येदियुरप्पा की जगह अपने नेता के तौर पर प्रस्तुत किया लेकिन शेट्टार भाजपा के पतन को रोक पाने में असफल सिद्ध हो गए.


सत्ता संभालने की आदत नहीं है

कुछ राज्यों को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी का इतिहास रहा है कि जब भी वह सत्ता में आई है उसने लंबी पारी नहीं खेली. पहले उत्तर प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और अब कर्नाटक की स्थिति को देखकर यह साफ हो गया है कि बीजेपी में सत्ता को लेकर उत्सुकता तो है लेकिन उसे संभाल पाने में वह सक्षम नहीं है. हम 2004 के लोकसभा चुनाव को क्यों भूलते हैं जहां पार्टी ने अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार पांच साल तो गुजारे लेकिन उसे लंबे समय तक बरकरार नहीं रख पाई.


नेतृत्व में भरोसा नहीं

भारतीय जनता पार्टी में जो सबसे बड़ी कमी है वह कर्नाटक चुनाव में भी दिखाई दी. पार्टी में नेतृत्व को लेकर हर समय असमंजस की स्थिति रहती है. पार्टी में गांधी परिवार की तरह सर्वसम्मति नहीं है बल्कि एक ऐसा विरोधाभास है जिसमें भाजपा का हर कोई नेता अपने आप को सर्वोच्च समझता है. यही वजह रही कि भाजपा केंद्रीय नेतृत्व कर्नाटक के स्थानीय लोगों पर भरोसा कायम नहीं कर पाया.


अंतर्कलह से ग्रस्त रही पार्टी

कर्नाटक की जनता भारतीय जनता पार्टी के पिछले पांच साल के शासनकाल में एक अव्यवस्थित सरकार देख चुकी है. इस छोटे से कार्यकाल में जनता ने तीन मुख्यमंत्री भी देखा. गड़े मुर्दे उखाड़ने, सौदेबाजी करने, धोखा देने के अनेक मौके आए जहां पर पार्टी की छवि को काफी नुकसान हुआ.


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