33 साल के लंबे अर्से के बाद प. बंगाल में वाम दलों के नेतृत्व का पूरी तरह से सफाया हो गया. ममता बनर्जी ने प. बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री पद के लिए जैसे ही शपथ ग्रहण किया वहां की जनता अपनी नेता को देखने के लिए उमड़ पड़ी.
कभी अपने विदोही तेवरों की वजह से तो कभी अपने सादे व्यवहार की वजह से ममता बनर्जी आम जनता में हमेशा लोकप्रिय रही हैं. ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि ममता दीदी अपने नाम के अनुसार ममतामयी हैं तो बंगाल के हक के लिए उन्होंने अपना दूसरा रुप भी दिखाया है.
भारत की राजनीति में एक प्रभावशाली पद पर होते हुए भी ममता बनर्जी को सादगी बेहद प्रिय है. सफेद साड़ी में घूमने वाली ममता बनर्जी जमीन से जुड़ी एक नेता हैं.
देश की रेल मंत्री और बंगाल विधानसभा में विपक्ष की नेता ममता बनर्जी का जन्म 5 जनवरी, 1955 को कोलकाता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ. ममता ने छात्र जीवन के शुरुआती दिनों से ही राजनीति में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी और 1970 के दशक में वो कांग्रेस की सक्रिय कार्यकर्ता बन गई. 1976 में ममता बंगाल महिला कांग्रेस की महासचिव बन गई थीं.
कभी जयप्रकाश नारायण की कार के बोनट पर कूदने वाली ममता बनर्जी ने अपने राजनीतिक जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं.
1984 के चुनाव में जादवपुर सीट से सोमनाथ चटर्जी को हराकर ममता बनर्जी ने सबसे युवा सांसद बनने का इतिहास रचा. 1989 में कांग्रेस विरोधी माहौल में ममता सांसद का चुनाव हार गई लेकिन 1991 के आम चुनावों में उन्होंने दक्षिण कोलकाता सीट से जीत दर्ज की.
1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 के चुनावों में ममता ने इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखा. 1991 में राव सरकार में ममता मानव संसाधन विकास, खेल और युवा कल्याण तथा महिला एवं बाल विकास मंत्री भी रहीं.
1996 में उन्होंने अलिपुर में एक रैली के दौरान अपने गले में काली शाल से फांसी लगाने की धमकी भी दी. और इतना ही नहीं अपने नाम के विपरीत ममता बनर्जी ने एक बार तत्कालीन समाजवादी पार्टी सांसद अमर सिंह का कॉलर भी पकड़ लिया था. फरवरी 1997 में रेल बजट पेश होने के दौरान ममता ने रेलमंत्री रामविलास पासवान पर अपनी शाल फेंककर बंगाल की अनदेखी के विरोध में अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी थी.
कांग्रेस से अलग होकर ममता ने 1 जनवरी 1998 को अपनी पार्टी ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस का गठन किया और 1999 में एनडीए की गठबंधन सरकार में वो रेलमंत्री रहीं. हालांकि वो ज्यादा दिनों तक सरकार का हिस्सा नहीं रही और 2001 में सरकार से अलग हो गई.
इसके बाद 2004 में चुनाव से पहले वो फिर एनडीए सरकार में आईं और खदान एवं कोयला मंत्री रहीं. 2004 के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस बुरी तरह हार गई लेकिन 2009 के आम चुनावों में पार्टी ने अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया.
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