व्यापक भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ाने के आरोपों से बुरी तरह घिरे देश के प्रधानमंत्री ने आखिरकार अपनी चुप्पी तोड़ ही दी. लेकिन उनकी आवाज में भी ऐसा लग रहा था मानों बोल उनके हों और शब्द किसी और के. ना कोई उत्तेजना, ना गुस्सा बस बचाव की मुद्रा. ऐसा लगता है जैसे मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री(Prime Minister of India) तो नाम के ही रह गए हैं. अपनी बात रखने के लिए वह प्रेस कांफ्रेस (Press Conference) की जगह भी प्रिंट मीडिया (Print Media) के संपादकों (Editors) का ही सहारा ले रहे हैं.
अब इसे कुर्सी बचाने की कोशिश कहें या पार्टी आलाकमान की आंखों का डर मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) की छवि आज राष्ट्र के सामने एक भीगी बिल्ली की तरह हो गई है. कल तक जिस नेता को अर्थशास्त्र (Economy) का महानज्ञाता माना जाता था, जिसने अपने समय में देश को बड़े वित्तीय सकंट से उबारा था आज वह इस काबिल भी नहीं कि स्वयं राष्ट्र के समक्ष दो शब्द कह सकें. क्या प्रधानमंत्री के पद का भार ऐसा होता है कि वह कुर्सी के लिए सबसे समझौता करने को तैयार हैं?
प्रधानमंत्री(PM of India) ने कांग्रेस (Congress party) कार्यसमिति की बैठक में आग्रह के बाद मीडिया से अब लगातार संवाद की नियमित प्रक्रिया को शुरू कर दिया है. मनमोहन सिंह ने प्रिंट मीडिया के संपादकों से बातचीत के दौरान कहा कि मुझे सोनिया गांधी से भरपूर सहयोग मिला, वह कांग्रेस अध्यक्ष (Congress Head) के रूप में बेहतरीन ढंग से काम कर रही हैं. साथ ही प्रधानमंत्री ने मीडिया की आलोचना भी की और कहा कि मीडिया ‘आरोप लगाने वाला, अभियोजक और न्यायाधीश’ बन गया है.
प्रधानमंत्री ने लोकपाल (Citizen’s ombudsman Bill) के बारे में बताते हुए कहा कि सरकार समाज के लोगों से बात करेगी लेकिन कोई भी समूह इस बात पर जोर नहीं दे सकता कि उनके विचार अंतिम हैं. प्रधानमंत्री का कहना था कि वह तो लोकपाल विधेयक के दायरे में आना चाहते हैं मगर उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य महसूस करते हैं कि प्रधानमंत्री के पद को लोकपाल के दायरे में लाने से अस्थिरता पैदा होगी.
अब आप ही बताइए प्रधानमंत्री को देश नहीं अपने मंत्रिमंडल की ज्यादा फ्रिक रहती है. ऐसा मंत्रिमंडल जिसमें कुछ लोगों के चाहने या ना चाहने की वजह से बेहद अहम लोकपाल बिल अधर में अटका है. ऐसा मंत्रिमंडल जिसमें भ्रष्ट नेताओं की जमात बैठी है जहां से ए राजा और कलमाड़ी जैसे भ्रष्टाचारी निकलते हैं.
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