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सरकारी बैंकों की बदसलूकी आखिर कब तक

आज हर तरफ भ्रष्टाचार की रट लगी हुई है. जिसे देखो भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का नारा लगा रहा है लेकिन इस बीच एक आवाज दब गई है और वह आवाज है सरकारी दफ्तरों और बैकों में परेशान होते आम आदमी की आवाज. आज चाहे दिल्ली में सिटिजन चार्टर लागू हो गया है पर सब जानते हैं कि यह सिटिजन चार्टर कितने काम का है और कितना निकम्मा.


asleep on the jobसरकारी ऑफिसों और बैंको की कार्य प्रणाली यूं तो जनता को देखकर निर्धारित की जाती है पर सरकारी अफसर और उसमें कार्यरत लोग यह भूल जाते हैं कि वह सरकारी नौकर हैं. सुबह नौ बजे से खुलने वाले बैंक में बाबू साहब दस बजे तक आते हैं. आने के बाद चाय पानी का दौर होगा तक जाकर काम की बारी आएगी. तब तक जनता जनार्दन लाइन में खड़ी होकर भारत की अनंत काल से चली आ रही परंपरा को निभाते रहे. इसके बाद भी कार्य की गति खरगोश की तरह नहीं होगी वह अपनी कछुआ चाल ही चलेगी. बीच-बीच में स्टाफ का काम पब्लिक से ज्यादा होगा. कई बार तो आपको ऐसा लगेगा कि स्टाफ की संख्या पब्लिक से ज्यादा है.


ऐसा किसी एक सरकारी बैंक या दफ्तर का हाल नहीं है. आप चाहे राशन कार्ड के दफ्तर चले जाओ या फिर पहचान पत्र बनाने के ऑफिस कमोबेश हर जगह यही हाल है.


सरकारी दफ्तर के लोग “समय के कितने पाबंद होते हैं इसका एक नमूना पेश है. श्रीमान पांडेय जी एक प्रसिद्ध सरकारी बैंक में काम करते हैं. बैंक का समय बाहर बोर्ड पर साफ-साफ 9.30 बजे का लिखा हुआ है लेकिन मजाल है कि पांडेय जी 10.00 बजे से पहले पहुंचें. आलम तो यह है कि अब लोग पांडेय जी के आने का समय ही 10 बजे को मानते हैं और ऐसा सिर्फ पांडेय जी नहीं बल्कि बैंक के सभी कर्मचारी करते हैं. इसलिए अब जनता उस बैंक के खुलने का समय 10 बजे ही मानती है. इसके बाद पांडेय जी का लंच का समय दो बजे हैं. इस बीच अगर 1.55 मिनट पर आप उनके पास पैसा जमा कराने या फिर ड्राफ्ट पर मात्र साइन करवाने भी गए तो कहेंगे 2.30 के बाद आना अभी लंच टाइम है. यानि कि एक साइन के लिए 30 मिनट लगाओ. ऐसा वह हमेशा करते हैं.


आखिर गलती है कहां?

क्या हमारा तंत्र खराब है या हममें ही कोई कमी है. सरकार हर साल कई सौ सरकारी नौकरियां निकालती है जिसमें कई लोगों को नौकरी मिलती है. जब नए लोग भर्ती होते हैं तो उनमें जोश होता है कुछ कर दिखाने का लेकिन वह जोश उन सीनियर्स को देखकर रफूचक्कर हो जाता है जो खुद सरकारी  नौकरी के मौज उडाते हैं.


कहते हैं ना कि मौका मिले तो सभी चौका मारने को तैयार रहते हैं. सरकारी नौकरी में भी यही हाल है. जब तक सरकारी नौकरी नहीं लगती तब तक सब सरकारी तंत्र के “मारे” बने फिरते हैं और जब कोई सरकारी नौकरी लग जाती हैं तो सब “मारने” की ही फिराक में रहते हैं.

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