भारत दुनिया का एक ऐसा राष्ट्र है जहां आप सड़क पर खड़े होकर माइक लेकर भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं बशर्ते वह किसी को ठेस ना पहुंचाए. साथ ही इस देश की धर्म निपरेक्षता पर तो सवाल है ही नही क्यूंकि एक हिंदू बहुल देश में आज प्रधानमंत्री सिख है और उप राष्ट्रपति एक मुसलमान और देश की सरकार चलाने वाली पार्टी की मुखिया मूलत: ईसाई हैं. धर्मनिरपेक्षता की ऐसी मिसाल किसी देश में देखने को नहीं मिलती. लेकिन यह वह चेहरा जो सिर्फ किताबों में या पन्नों पर नजर आता है. हकीकत तो यह है कि देश में धर्म ही राजनीति का सबसे बड़ा मुद्दा है और अभिव्यक्ति की कितनी आजादी है यह रामलीला मैदान में हुए रामदेव पर हमले से साफ हो जाता है.
अभिव्यक्ति की आजादी पर धर्म के ठेकेदार किस तरह हावी हैं इसका ताजा उदाहरण है सलमान रुश्दी के वीडियो कॉफ्रेंस को कैंसिल करना. ऐन वक्त पर जयपुर साहित्य महोत्सव में मशहूर लेखक सलमान रुश्दी के वीडियो कांफ्रेंसिंग को रद्द कर दिया गया था. जयपुर साहित्य सम्मेलन में आने में असमर्थता जताने के बाद मंगलवार को रुश्दी की वीडियो कांफ्रेंसिंग तय थी. इसमें यह तय था कि वे सिर्फ मिडनाइट चिल्ड्रन पर बोलेंगे, विवादास्पद पुस्तक सेटेनिक वर्सेज पर कोई चर्चा नहीं होगी. लेकिन इसके बावजूद रुश्दी का भारी विरोध हुआ और स्थिति के खराब होने की आशंका तथा मुस्लिम संगठनों के विरोध को देखते हुए सम्मेलन के संयोजक ने कांफ्रेंस कार्यक्रम के रद्द होने की घोषणा कर दी. इसका फैसला उत्सव के आयोजकों और मुस्लिम संगठनों के नेताओं के बीच हुई बैठक के बाद किया गया.
अब बताइए हम खुद को तो बहुत धर्मनिपरेक्ष और अभिव्यक्ति की आजादी देने वाला देश मानते हैं लेकिन जब बात इसे अमल में लाने की होती है तो हम धर्म के अनुयायियों के आगे झुक जाते हैं. कभी हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीर बनाने वाले एम एफ हुसैन को हम देश से निकाल देते हैं तो कभी मुस्लिम समुदाय के खिलाफ लिखने वाले को देश में कदम भी नहीं रखने देते. क्या इसी को हम अभिव्यक्ति की आजादी कहते हैं?
और यह सरकार क्या इतनी दब्बू है कि चन्द धार्मिक संगठनों के दबाव में वह एक इंटरनेशनल शख्सियत को जिसने साहित्य के क्षेत्र में इतना नाम कमाया है, उसे देश में सिर्फ इसलिए नहीं आने देती कि कहीं उसका वोट बैंक ना खो जाए. रुश्दी के बहाने कुछ मुस्लिम नेता अपनी ताकत बढ़ाने में सफल होते दिख रहे हैं. उन्हें मालूम था कि इस चुनावी समय में उनका विरोध करने वाला कोई नहीं. उलटे सभी उन्हें खुश करने में लगे हैं.
सलमान रुश्दी का सैटनिक वर्सेस
सलमान रुश्दी की सैटनिक वर्सेस 1988 में प्रकाशित हुई थी. 1989 में उसे लेकर ईरानी राष्ट्रपति अयातुल्ला खुमैनी ने रुश्दी को मार डालने का फतवा दिया. इसके बाद नौ वर्ष तक ब्रिटिश सरकार ने रुश्दी को सुरक्षा में रखा. फिर 1998 में ईरान की नई सरकार ने घोषणा की कि वह उस फतवे का अब समर्थन नहीं करती. धीरे-धीरे रुश्दी सार्वजनिक जीवन में भाग लेने लगे. अब तो लंबे समय से दुनिया के मुस्लिम जनमत ने भी उसे बीती बात मान लिया है.
दरअसल इस किताब में पैगंबर मोहम्मद साहब का अपमानजनक चित्रण किया गया है. किताब में मोहम्मद पैगंबर साहब के साथ साथ इस्लाम, कुरान और मक्का के संबंध में भी काफी विरोधाभासी बातें की गई हैं जिन पर मुसलिम जगत को सख्त ऐतराज है.
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