अपने रास्ते के कांटे को किस तरह से साफ किया जाता है यह भला हमारे नेताओं से अच्छा और कौन जानता है. अगर कोई उनके अनैतिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश करता है तो वह तुरंत एकजुट होकर उसका विरोध तो करते ही है साथ ही दोबारा इस तरह का प्रयास न हो इसके लिए वह कानून या अध्यादेश भी लाते हैं.
खबर है कि सजा काट चुके नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने के लिए केंद्र सरकार अध्यादेश ला सकती है. सरकार द्वारा आध्यादेश लाने का मतलब है उन अपराधियों को बचाना और उनके लिए चुनाव में रास्ते खोलना है जिनके उपर कई गंभीर आरोप लगे हैं. सरकार के इस कदम से कहीं न कहीं लोकतंत्र में अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है.
दरअसल पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में दागी सांसदों और विधायकों को जोरदार झटका देते हुए कहा था कि अगर सांसदों और विधायकों को किसी आपराधिक मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद दो साल से ज्यादा की सजा हुई, तो ऐसे में उनकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से रद्द हो जाएगी. कोर्ट ने यह भी कहा है कि ये सांसद या विधायक सजा पूरी कर लेने के बाद भी छह साल बाद तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य माने जाएंगे. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भारतीय राजनैतिक दलों में खलबली सी मची हुई थी.
वैसे यह पहली बार नहीं है जब सरकार ने अपने आप को संरक्षित करने का प्रयास किया है. कुछ समय पहले केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था मानते हुए उन्हे सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की घोषणा की थी. राजनीतिक दलों को सूचना आयोग का यह फरमान गले नहीं उतर रहा था. कांग्रेस सहित भाजपा और अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी खुद को आरटीआई कानून के दायरे में लाने का विरोध किया. पिछले दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम में संशोधन को मंज़ूरी दे दी थी. संशोधन के तहत राजनीतिक दलों को इस कानून से अलग रखने का प्रस्ताव है.
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