भारत आस्था और धर्म का देश है जहां धर्म को हर बात से ऊपर रखा जाता है. यहां तक की धर्म के आगे लोग इंसानियत को भी भूल जाते हैं. धर्म ही वह कारण है जिसकी वजह से आज भी देश में विविध संस्कृतियां फल-फूल रही हैं और इसी की वजह से सत्य साईं और आसाराम बापू जैसे आम लोगों को भगवान के बराबर माना जाने लगता है. अभी कुछ दिनों पहले श्री सत्य साईं की कमाई यानि भक्तों द्वारा दिए गए दान का आंकलन किया गया तो पता चला कि बाबा सत्य साईं का खजाना किसी बड़े बैंक से कम नहीं था और अब केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर के गर्भ गृह से निकले खजाने से साबित होता है कि क्यूं लोग भारत को सोने की चिड़िया कहते थे.
केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर में कुल छह तहखाने हैं जिनमें से अब तक पांच को खोला गया है. और इन पांच तहखानों में से मिली राशि की कीमत 5 लाख करोड़ रुपये आंकी जा रही है. जी हां, पांच लाख करोड़ यानि एक स्विस बैंक की टक्कर का हमारे भारत में एक मंदिर है. और यह पांच लाख करोड़ तो वह राशि है जो इसकी असली कीमत है. मंदिर में कई ऐसी पुरानी और विशेष वस्तुएं भी हैं जो दुर्लभ हैं और विश्व की ब्लैक मार्केट में इनकी कीमत चौगुनी हो जाती है. कुल मिलाकर कहा जाए तो मंदिर के तहखाने से इतना धन मिलना यह साफ दर्शाता है कि भारत के गरीब होने का कारण यहां संपदाओं की कमी नहीं बल्कि उसका गलत इस्तेमाल है.
अब साफ होता है कि महमूद गजनबी से लेकर अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को लूटने की यात्राएं बेवजह नहीं कीं. भारत में सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात के अकूत भंडार थे. हालांकि भारत जब सोने की चिड़िया कहलाता था तब भी सामंती व्यवस्था के चलते ग्रामों में गरीबी पसरी थी, लेकिन भगवान तब भी अमीर थे.
आज जब मंदिरों के चढ़ाए जाने वाले चढ़ावों की जानकारी बाहर आ रही है, तब भी हैरानी होती है कि इन मंदिरों में चढ़ावों की संपत्ति विदेशी बैंकों में जमा काले धन की कुल संपत्ति से कहीं ज्यादा है. अकेले पद्मनाम स्वामी मंदिर के गुप्त खजाने ने करीब एक लाख करोड़ की संपदा उगली है. यह धन देश के कई राज्यों के वार्षिक बजट से ज्यादा है. यदि इस धनराशि से राज्यों की अर्थव्यवस्था को मजबूत किए जाने का सिलसिला शुरू हो जाए तो कई राज्यों का कायाकल्प हो सकता है, लेकिन आस्था के चलते क्या जंग खा रही इस विपुल धनराशि को इंसानी सरोकारों से जोड़ना संभव है?
इस मंदिर से अभी तक जो धनराशि मिली है, उसका यदि तुलनात्मक मूल्यांकन किया जाए तो यह देश के कई राज्यों के सालाना बजट से कहीं ज्यादा है. दिल्ली, झारखंड और उत्तराखंड के कुल वार्षिक बजट से भी यह राशि 23 हजार करोड़ रुपये ज्यादा है. देश की सबसे बड़ी मनरेगा परियोजना का बजट भी इससे आधा है. तिरुपति बालाजी मंदिर के पास भी इतनी दौलत है कि वह देश के कुल बजट के पांचवें हिस्से तक पहुंच गई.
इस मंदिर के खजाने में अभी 50 हजार करोड़ रुपये जमा हैं. एक साल में करीब 650 करोड़ कमाने वाले अरबपति बालाजी भगवान दुनिया में सबसे धनपति भगवान हैं. यह मंदिर अब विदेशी मुद्रा की आय का भी जरिया बन रहा है. अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया जैसे 12 देशों की मुद्रा चढ़ावे के रूप में यहां उपलब्ध है. इस मंदिर की करीब एक सौ करोड़ रुपये की वार्षिक कमाई अकेले मुंडन कराने आए श्रद्धालुओं के बाल काटकर बेचने से होती है.
श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर से निकले खजाने पर किसका अधिकार हो, यह बहस भी छिड़ गई है. कुछ तर्कशास्त्री तर्क दे रहे हैं कि आखिरकार किसी भी देश में मौजूद कोई भी संपत्ति राष्ट्र की धरोहर होती है, इसलिए इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर देश के पिछड़े क्षेत्रों के कमजोर तबकों व वंचित समाज के कल्याण में लगाया जाए. इन तबकों के बच्चों को उच्च गुणवत्ता वाले विद्यालयों में धनाभाव के कारण प्रवेश नहीं मिल पाता.
लिहाजा, अच्छे स्कूल खोले जाने में इस राशि को खर्च किया जाए. ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र न होने के कारण इस राशि को स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च किए जाने की भी पैरवी की जा रही है. हालाकि इस दौलत को जनता की भलाई में लगाने की वकालत करने वाले एक तर्कशास्त्री यू कलानाथन को कट्टरपंथियों के गुस्से का शिकार भी होना पड़ा. उनके घर में तोड़फोड़ की गई.
इस तरह के आक्रोश को तार्किक नहीं कहा जा सकता है. यह विपुल राशि यदि चलन में नहीं लाई जाती है तो यह खोटी कहलाएगी और इसकी सार्थकता के कोई मायने नहीं रह जाएंगे. भगवान को अर्पित दौलत से यदि गरीबों का कल्याण होता है तो इससे भला कोई दूसरा काम नहीं हो सकता है. हालाकि बहस इस बात पर हो सकती है कि इस अकूत धन-संपदा पर पहला हक किसका हो, राज्य सरकार का या केंद्र सरकार का? चूंकि यह संपदा केरल के मंदिर से हासिल हुई है, इसलिए इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि इस पर पहला अधिकार राज्य सरकार का है.
भारत में धर्म के नाम पर लोगों की आस्था की एक कहानी को यह मंदिर बयां कर रहा है. हालांकि कुछ जानकारों का मानना है कि यह त्रावणकोर के राज परिवार का है. उन्होंने लुटेरों से इसे सुरक्षित रखने की दृष्टि से तिलिस्मी शिल्प से बनाए गए तलघर में रखा था. लेकिन उन्हें भी तो समझना चाहिए कि यह मंदिर की संपत्ति अगर आम आदमी और गरीबों के काम आ सके तो इसमें बुराई क्या. क्या भगवान खुद नहीं कहते कि इंसानियत का धर्म हर धर्म से बड़ा है.
सरकार ने यह तो साफ कर दिया है कि मंदिर से प्राप्त खजाना मंदिर के पास ही रहेगा और अगर मंदिर प्रशासन से जुड़े लोग इसे खर्च करना चाहेंगे तभी यह खजाना खर्च होगा. पर हमारा तो तर्क यही है कि मंदिरों में जंग खा रही अटूट संपत्ति को पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा, जल संग्रहण और बिजली उत्पादन से जुड़े क्षेत्रों में लगाया जाता है तो यह राशि राष्ट्र निर्माण से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के काम आएगी और आम आदमी की भगवान के प्रति आस्था भी मजबूत होगी.
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