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जनता की जिम्मेदारी

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अपने दम पर गांव के निकट रेलवे स्टेशन बनाने और अपने ही दम पर पशु अस्पताल, विद्यालय व अन्य सुविधाओं की व्यवस्था कर लेने, हजारों की संख्या में नेत्रदान का संकल्प लेने .. पूरे देश के हर क्षेत्र के लिए अनुकरणीय ऐसे कई उदाहरण पेश करने वाले हरियाणा में इन दिनों ऐसी घटनाएं हो रही हैं जो पूरे देश के लिए चिंता का विषय बन गई हैं। जी नहीं, मैं वहां पिछले दिनों आई बाढ़ की बात नहीं कर रहा हूं। मनुष्य स्वयं उसका कारण नहीं है, इसलिए वह उससे निपट लेगा। पर उन मुश्किलों का क्या होगा जो मनुष्य खुद पैदा कर रहा है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसके लिए सरकार, उसकी तुष्टीकरण की नीति, उत्पादक और विकासपरक प्रयासों के मामले में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी मुख्य रूप से जिम्मेदार है। लेकिन क्या इतने से ही सार्वजनिक संपत्तिऔर सुविधाओं के प्रति नागरिकों की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है कि सरकार, राजनेता या प्रशासन गैर जिम्मेदार है। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के भी साठ साल पूरे हो चुके हैं। क्या किसी देश में लोकतांत्रिक सोच की परिपक्वता के लिए इससे अधिक समय की जरूरत होती है?


लोकतंत्र इसीलिए शासन की पद्धतियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है कि यह हमें अभिव्यक्ति की आजादी देता है। हम अपने दुख-दर्द, अपनी समस्याएं अपने ढंग से हल कर सकते हैं। व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से खुद न कर सकें तो शासन-व्यवस्था के समक्ष इसके लिए मांग उठा सकते हैं। मांग करने से भी हल न हों तो उसके लिए आंदोलन भी कर सकते हैं। लेकिन आंदोलन का तरीका ऐसा हो कि हम खुद अपनी ही संपत्तिको नुकसान पहुंचाने लगें तो उसे किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि लोकतंत्र के संदर्भ में अभी हमारी समझ परिपक्व नहीं हुई है।


हमने अपने अधिकार तो जान लिए और उनसे लाभ उठाना भी सीख लिया, लेकिन दायित्वों से हमारा कोई मतलब नहीं रहा। यह कौन नहीं जानता कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी सार्वजनिक संपत्तिायां जनता की होती हैं? चाहे सड़क हो, या बस, ट्रेन हो या फिर रेलवे लाइन, या कुछ और.. वह किसी विभाग या सरकार की बाद में, सबसे पहले जनता की होती है।

सीधे पैसा देकर खरीदते नहीं हैं? यह क्यों भूल जाते हैं कि देश में सार्वजनिक संपत्तिके नाम पर जो कुछ भी खरीदा जाता है वह हमारे-आपके द्वारा विभिन्न करों-शुल्कों के रूप में दिए गए धन से ही खरीदा जाता है। उसकी मरम्मत या रख-रखाव पर भी जो खर्च होता है, वह धन भी उसी खजाने से आता है। जाहिर है, इस तरह के कार्यो से हम खुद अपना ही धन बर्बाद कर रहे हैं और आगे चलकर इसकी भरपाई भी हमें ही करनी होगी। यह बात हम साठ साल में नहीं समझ सके, जो हमें तुरंत समझ लेनी चाहिए थी।


ऐसा केवल हरियाणा में हो रहा हो, ऐसा भी नहीं है। कमोबेश यह बात पूरे देश में हो रही है। छोटी या बड़ी बातों पर पहले मांग उठती है। मांग नहीं मानी जाती तो आंदोलन शुरू हो जाते हैं। आंदोलन पहले तो शांतिपूर्ण तरीके से चलते हैं और फिर उग्र हो जाते हैं। देखते-देखते हिंसक रूप ले लेते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार ही है। शांतिपूर्ण तरीके से कोई बात सुनने की आदत ही हमारी व्यवस्था को नहीं है। आंदोलन उग्र होने पर भी उसे पहले बलपूर्वक दबाने की कोशिश की जाती है। जब आंदोलनकारी भड़क जाते हैं और आंदोलन हिंसक रूप ले लेता है, तब आश्वासन दिए जाते हैं। वह भी सिर्फ टालने के लिए। अपने आश्वासनों के अनुसार काम करने का राजनेताओं का कोई इरादा होता है, ऐसा लगता नहीं है। क्योंकि आम तौर पर राजनेता आश्वासन देते हैं और फिर भूल जाते हैं। वरना क्या वजह है कि अधिकतर आश्वासनों पर अमल होता कभी दिखाई नहीं देता है? यह गौर करने की बात है कि केंद्र सरकार पहले भी जाट आरक्षण संघर्ष समिति की मांगों पर विचार का आश्वासन दे चुकी है। लेकिन इस पर अभी तक कोई फैसला सामने नहीं आया। आखिर क्यों?


वैसे भी आरक्षण को लेकर विवादों का मसला कोई आज का नहीं है। इसके पहले सन् 90 में एक भयावह तूफान इसी आरक्षण की व्यवस्था के चलते खड़ा हो चुका है। देश के कई शहरों में युवाओं ने धरने-प्रदर्शन से लेकर तोड़फोड़-आगजनी तक को अंजाम दिया था। राजधानी दिल्ली में ही कई प्रतिभाशाली युवाओं ने आत्मदाह कर लिया था। लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी और आरक्षण की व्यवस्था खत्म नहीं की गई। बहुत दिन नहीं बीते जब राजस्थान, हरियाणा और उत्तार प्रदेश के भी कुछ भागों में आरक्षण की ही मांग को लेकर आंदोलन ने विध्वंसक रूप ले लिया था। ये वे आंदोलन हैं, जो अगड़ी जाति कहे जाने वाले तबकों के युवाओं ने किए हैं। आत्मदाह की स्थिति तक अगर कोई समाज पहुंच रहा है, तो इससे उसकी हताशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। इससे भी भयावह बात है आत्मविश्वास का खो जाना। अगड़ी जाति माने जाने वाले तबकों के युवा आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे हैं। इसका अर्थ क्या है? यही न, कि आरक्षण के साथ-साथ सिफारिशों और जुगाड़ों के दौर में खुद अपनी योग्यता पर उन्हें भरोसा नहीं रह गया? इस हताशा की वजह क्या और कोई है?

आखिर समय से कोई जायज मांग क्यों नहीं सुनी जाती? हालांकि हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने इस मामले को शांतिपूर्ण ढंग से हल करने का पूरा प्रयास किया। उन्होंने अपनी ओर से सिफारिश भी आगे बढ़ा दी। लेकिन इसके आगे इस मामले में उनके करने के लिए कुछ है नहीं। क्योंकि मामला सिर्फ एक राज्य का नहीं, पूरे देश का है। अगड़ी जाति के कहे जाने वाले युवाओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन तबकों को आरक्षण दिया जा रहा है, रोजगार की गारंटी यह उन्हें भी नहीं देता है। सच तो यह है कि आरक्षण की भूमिका सिर्फ समाज में वैमनस्य फैलाने की रह गई है। आखिर शिक्षा और रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने की बात क्यों नहीं की जा रही है? हमें एक स्वतंत्र-संप्रभु राष्ट्र हुए छह दशक से ज्यादा समय बीत चुका है लेकिन अभी तक हम अपनी शिक्षा-रोजगार जैसी बुनियादी समस्याएं भी हल नहीं कर सके। बहुत हद तक इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। आमतौर पर मध्यम वर्ग में रोजगार का अर्थ सिर्फ नौकरी मान ली गई है। आखिर पढ़े-लिखे लोग स्वरोजगार की ओर कदम क्यों नहीं बढ़ाते हैं? अगर प्रतिभाशाली युवा अपना ध्यान नौकरियों से हटाकर स्वरोजगार की ओर केंद्रित करें तो वे न केवल अपने बल्कि दूसरों के लिए भी रोजगार का सृजन कर सकेंगे।


Source: Jagran Nazariya


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