Menu
blogid : 1654 postid : 20

घाटी में सिर्फ सख्ती की जरूरत

Niche Blogging
Niche Blogging
  • 8 Posts
  • 0 Comment

ईद के दिन श्रीनगर में जो कुछ भी हुआ वह कश्मीर में सक्रिय अलगाववादियों के गठजोड़ और उनकी मंशा जाहिर करने के लिए काफी है। अब उदारवादी होने का मुखौटा ओढ़े रहने वाले मीरवाइज ने ढील मिलते ही जिस तरह पैंतरा बदला है, उससे जाहिर हो गया है कि घाटी के सभी अलगाववादी अपने स्वाथरें के मामले में एक हैं। इनके अलग-अलग सार्वजनिक रुख विभिन्न उद्देश्यों के लिए सिर्फ बदले हुए चेहरे भर हैं, वास्तव में भीतर से ये सभी एक हैं। मीरवाइज ने राज्य सरकार से शाति व व्यवस्था बनाए रखने का वादा करके मार्च निकालने की अनुमति ली और फिर मौका मिलते ही पैंतरा बदल दिया। नतीजा घाटी में व्यापक हिंसा के रूप में सामने आया। जिस तरह वहा श्रीनगर के लालचौक पर पाकिस्तानी झडा फहराया गया और भारत विरोधी नारे लगाए गए, उससे अलगाववादियों की पैंतरेबाजी व अविश्वसनीयता के साथ-साथ सरकार की कमजोरी भी जाहिर हुई है। हैरत की बात है कि केंद्र सरकार अभी भी वहा के कई जिलों से सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम खत्म करने पर विचार कर रही है। मामूली ढील के नतीजे अगर ये हैं, तो इसे खत्म करने के नतीजे क्या होंगे, यह अभी ही सोचा जा सकता है।


यह बात बिलकुल साफ हो चुकी है कि अलगाववादी चाहे किसी भी रूप में दिखाई दे रहे हों, पर वे हैं मूलत: शरारती तत्व। वे शातिपूर्ण जुलूस की माग करके उसे हिंसक भीड़ की शक्ल दे लेते हैं, पहले भाड़े के पत्थरबाज पकड़ते हैं और फिर उन्हें बाजारों में खड़े करके उसे भीड़ का आक्रोश बता देते हैं, अलगाववादी गतिविधियों में शामिल न होने और अच्छे आचरण की शर्त पर साथियों को रिहा कराते हैं और फिर फर्जी पासपोर्ट के जरिये उन्हें अलगाववादी व आतंकवादी गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए दुबई भिजवा देते हैं.. ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जो प्रमाण सहित गिनाए जा सकते हैं। इसके बावजूद हमारी राज्य सरकार बार-बार जाने किस उम्मीद में अलगाववादियों से बातचीत करने में लगी रहती है। अब तक का इतिहास अगर देखा जाए तो न तो बातचीत से कोई समाधान निकला है और न अलगाववादियों से बातचीत का कोई नतीजा निकलने ही वाला है। क्योंकि हकीकत यह है कि उन्हें अलगाववाद की अपनी दुकान चलाने के लिए आईएसआई से धन मिलता है। केवल इस धन के लिए ही वे यह कारोबार चलाते हैं। इसके अलावा न तो कश्मीर से उनका कोई मतलब है, न कश्मीरियत से और न कश्मीरी जनता से ही। क्योंकि कश्मीरी जनता खुद को पूरी तरह भारतीय और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानती है।


इसका एक ताजा प्रमाण अभी आतंकवादी नसीर सफी मीर की रिहाई से भी मिला है। नसीर को चार साल पहले दिल्ली के दो व्यापारियों से हवाला के जरिये 55 लाख रुपये का जुगाड़ करते पकड़ा गया था। उसके पास से दो किलो आरडीएक्स और एक डेटोनेटर भी बरामद किया गया था। पूछताछ में उसने बताया था कि यह पैसा मीरवाइज के लिए है। इसी बीच केंद्र ने अलगाववादियों से बातचीत शुरू की तो मीरवाइज ने शतरें में नसीर की रिहाई की माग भी रख दी। तब सरकार ने उसे पेरोल पर रिहा कर दिया था। इसके बाद वह कश्मीर आ गया और वहा कुछ दिनों तक लाल बाजार पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट भी करता रहा, लेकिन थोड़े दिनों बाद वह गायब हो गया। बाद में मालूम हुआ कि वह वहा से दिल्ली होते हुए नेपाल और फिर फर्जी पासपोर्ट के जरिये लीबिया होते हुए दुबई पहुंच गया। माना जा रहा है कि उसके फरार होने में मीरवाइज के अलावा हिजबुल मुजाहिदीन ने भी भूमिका निभाई है। इस बात से ही इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि मीरवाइज कितने शातिप्रेमी और कितने उदारवादी हैं और उनका उद्देश्य वास्तव में क्या है।


आश्चर्यजनक बात यह है कि राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल होने के स्पष्ट सुबूत उपलब्ध होने के बावजूद अलगाववादियों से बात करने की कोशिश की जाती है और इसके लिए उनकी शतर्ें भी मान ली जाती हैं। यही नहीं, खूंखार आतंकवादियों के बताए गए ठिकाने से अचानक गायब हो जाने के बाद उनकी खोज-खबर भी नहीं ली जाती। अब विपक्ष के कुछ वरिष्ठ राजनेता इसके लिए जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को जिम्मेदार ठहराते हुए उनके इस्तीफे की माग कर रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि उस वक्त वे क्या कर रहे थे जब मीरवाइज की सिफारिश पर एक आतंकवादी को रिहा किया जा रहा था और उस वक्त भी जब वह कुछ दिन हाजिरी देने के बाद भाग निकला था। तब एक बार भी किसी ने उसकी बात तक नहीं की। आखिर तब सबके होश कहा थे? अगर वास्तव में देश और देशवासियों की चिंता थी तो यह मामला उसी वक्त उठाया जाना चाहिए था। पानी सिर से ऊपर गुजर जाने के बाद बात उठाने का कोई मतलब नहीं होता।


सच तो यह है कि अब न तो उमर अब्दुल्ला को जिम्मेदार ठहराने से कुछ होने वाला है और न केंद्र सरकार की ढुलमुल नीति को कोसने से ही कोई असर पड़ेगा। इस समय ऐसा कुछ भी करने का लाभ अलगाववादियों को ही मिलेगा। इसलिए सबसे पहले तो सरकार और विपक्ष को अलग-अलग सुर अलापना बंद कर देना चाहिए। सरकार को भी यह बात समझ लेनी चाहिए कि रंगे सियारों पर भरोसा करने से कोई फायदा होने वाला नहीं है। यह बात जगजाहिर है कि कश्मीर की आम जनता का अलगाववाद से कोई मतलब नहीं है। न तो वह पाकिस्तान की समर्थक है और न अलगाववादियों की। कश्मीरी भी भावनात्मक स्तर पर उतने ही भारतीय हैं, जितने कि देश के अन्य प्रातों के लोग। इसलिए उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार देने वाला कोई कानून लागू किया जाए या हटाया जाए। बल्कि उन्हें ऐसा कानून हटाने से ही परेशानी होती है। किसी कारगर कानून को विवादास्पद बनाने का काम सिर्फ अलगाववादी करते हैं और वह भी केवल अपने छुद्र स्वाथरें के लिए। इसलिए ऐसी मागों के संदर्भ में खुद सरकार को संयमित रुख अपनाना चाहिए।


सच तो यह है कि ये मागें इस लायक भी नहीं हैं कि इन्हें सुना जाए। अगर अलगाववादियों की ऐसी चालों पर ध्यान दिया गया तो समस्या कभी भी हल होने वाली नहीं है। घाटी की पूरी समस्या के हल का एक ही उपाय है और वह है सख्ती। अलगाववादियों से बातचीत की कई कोशिशें की जा चुकी हैं और सभी कोशिशें बेनतीजा रही हैं। घाटी में हिंसा का दौर थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। अलगाववादियों को आईएसआई की मदद बदस्तूर जारी है और इस मदद के रहते वे कभी जमीनी स्तर पर बात करने वाले नहीं हैं। इसलिए अब घाटी में शाति स्थापना के लिए कुल मिला कर केवल एक ही रास्ता बचा है और वह है सख्ती बरतना। केंद्र सरकार को भी कश्मीर के संदर्भ में अपनी नीति और कठोर करनी होगी। इनसे सख्ती से निपटा जाएगा, तभी समस्या हल होगी।

Source: Jagran Nazariya


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh