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ऊर्जा संकट का सही समाधान

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लंबे समय से हमारा देश ऊर्जा संकट से जूझ रहा है। उद्योग जगत इस संकट को पूरे साल महसूस करता रहता है और इसका खामियाजा भी बहुत तरह से भुगतता है। गर्मियों का मौसम आते ही आम आदमी को भी इस संकट का एहसास बहुत तीव्रता से होने लगता है, क्योंकि इस वक्त इसके चलते होने वाली मुश्किलों से उसको सीधे तौर पर जूझना पड़ता है। बार-बार इसके समाधान की मांग उठती है, उद्योगों की ओर से और आम जनता की ओर से भी। समाधान के लिए हर साल बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाई जाती हैं और बड़ी-बड़ी बातें भी की जाती हैं। सरकारें कुछ आश्वासन देकर अपना कर्तव्य पूरा मान लेती हैं और जनता भी इन आश्वासनों की हकीकत समझ कर खामोश हो जाती है। अफसोस की बात यह है कि इस संकट के समाधान के लिए जो सही प्रयास होने चाहिए वे कहीं से भी शुरू नहीं किए जाते – न तो सरकार की ओर से और न जनता की ही ओर से। बड़ी-बड़ी योजनाओं पर बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन भारी-भरकम लागत के कारण इन पर काम कुछ भी नहीं हो पाता है। हालांकि जिन छोटी योजनाओं पर कम लागत में काम हो सकता है, उनकी चर्चा तक नहीं की जाती। संतोषजनक बात यह है कि हरियाणा में अब ऐसी ही कुछ योजनाओं पर काम शुरू किया जा रहा है।

इस पर आंशिक तौर पर काम भी हुआ है। लेकिन आम तौर पर इसका दायरा घरेलू इस्तेमाल से आगे नहीं बढ़ सका है।

अब यह जो काम शुरू हुआ है, अगर इस पर व्यवस्थित ढंग से काम कर लिया गया तो इससे बिजली का संकट तो हल हो ही जाएगा, कूड़े के निस्तारण और खेती के लिए जैविक खाद की समस्या भी हल होगी। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि देश के सभी शहरों से प्रतिदिन लाखों टन जैविक कचरा निकलता है। इस कचरे का निस्तारण पूरे देश की नगर पालिकाओं के लिए बड़ी समस्या है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तो हर तीसरे-चौथे साल कहीं न कहीं कचरे का पहाड़ जैसा बन जाता है और इसके बाद जब उस जगह पर कचरे की डंपिंग मुश्किल हो जाती है तो नई जगह तलाशनी पड़ती है। जहां कहीं भी कचरा डंप किया जाता है वहां कचरे की सड़ांध के चलते रास्ते से गुजरना भी मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा उसमें मौजूद खाद्य सामग्री पर पक्षियों के मंडराने के कारण इससे हवाई जहाजों की उड़ानों के लिए भी मुश्किलें पैदा होती हैं। इस तरह कचरे की अनियोजित डंपिंग से वातावरण में प्रदूषण तो फैलता ही है, साथ ही लोगों के स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे कई तरह की बीमारिया फैलती हैं।

यह बात केवल दिल्ली जैसे महानगरों में होती हो, ऐसा भी नहीं है। पंजाब के लुधियाना और जालंधर जैसे शहरों से भी बहुत भारी मात्रा में कचरा निकलता है। धार्मिक स्थलों पर भी प्राय: भारी भीड़ होने के कारण वहां बहुत बड़ी मात्रा में कचरा निकलता है। विशेष आयोजनों के समय तो वहां के कचरे का निस्तारण बहुत बड़ी समस्या बन जाता है। अक्सर होता यह है संबंधित नगर पालिका के अधिकारी अपशिष्ट को अपने क्षेत्र से बाहर कहीं भी फेंक कर सिर्फ अपने सिर की बला टाल देते हैं। ऐसा करते समय वे यह भी नहीं सोचते कि दूसरी जगहों पर इसका परिणाम क्या होगा और भविष्य में यह पूरी मनुष्यता के लिए कितनी बड़ी मुसीबत बनेगा। हाल ही में हरिद्वार में हुए कुंभ के दौरान भी यही हुआ। कुंभ का पूरा कचरा उठा कर राजाजी नेशनल पार्क के आसपास की खाली जगह पर डाल दिया गया। अब इस कचरे में पड़े कई तरह के खाद्य और अखाद्य पदार्थ पार्क के अनजान जानवर खा रहे हैं। जाहिर है, यह सब पार्क के जानवरों के लिए नुकसानदेह ही साबित होगा। जबकि अगर इस अपशिष्ट के प्रबंधन के बारे में पहले से सोचा गया होता और इसकी सही व्यवस्था बनाई गई होती तो यह नुकसान के बजाय फायदे का कारण बन सकता था। इस समय पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी आम जन के लिए बिजली का संकट बड़ी समस्या बना हुआ है। अगर कचरे का इस्तेमाल बिजली बनाने में किया जा सके तो इसके दो फायदे तो साफ नजर आते हैं। पहला तो यह कि बिजली का संकट इससे काफी हद तक दूर हो जाएगा और दूसरा यह कि कचरे का सार्थक उपयोग हो जाएगा। इस तरह पहले बायोगैस और फिर उससे बिजली बनाने की प्रक्रिया में निकले हुए अपशिष्ट को भी इधर-उधर फेंकने की जरूरत नहीं होती है। यह खेतों के लिए बहुत अच्छी जैविक खाद का काम करता है। यह खाद न सिर्फ फसलों की उपज बढ़ाती है, बल्कि भूमि की उर्वराशक्ति को भी लंबे समय तक बनाए रखती है। इस तरह देखें तो इस प्रक्रिया में निकला अंतिम अपशिष्ट भी बजाय किसी नुकसान के फायदा पहुंचाने वाला है।

बेहतर यह होगा कि आसपास के दूसरे राज्यों की सरकारें भी हरियाणा की ही तरह ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर अपना ध्यान केंद्रित करें। खासकर कचरे से बिजली बनाने की प्रक्रिया पर अगर ठीक ढंग से काम किया जा सके तो इससे कुछ राज्यों की कई समस्याएं एक साथ हल हो जाएंगी। आम तौर पर ऐसी योजनाओं के साथ होता यह है कि प्रोजेक्ट तैयार किया जाता है और उस पर काम भी शुरू होता है। शुरुआती दौर में तो जोश होता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उससे जुड़े लोगों का उत्साह ठंडा पड़ता जाता है। अंतत: नतीजा यह होता है कि योजना ठंडे बस्ते के हवाले हो जाती है। पिछले कई वर्षो से काम चल रहे होने के बावजूद वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के उपकरण अभी भी आम प्रचलन में नहीं आ सके हैं। इसकी एक बड़ी वजह इनका प्रचार-प्रसार न होना भी है। अगर सरकारें इन सभी मोर्चो पर सुविचारित ढंग से काम करें तो निश्चित रूप से इन समस्याओं का प्रभावी समाधान हो सकता है।



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