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गुडिया और दरख़्त

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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मैं बुढा दरख़्त खुद के अस्तित्व को याद करता हूँ,
मैं यहाँ गाँव मैं बड़ा हुआ,
पहले पौधा, फिर पेड़, और एक बड़ा वृक्ष बना,
पहले अपने को सींचता हुआ पाया,
फिर वो दिन भी आया जब मेरी शाखाओं की छाँव मैं बच्चे खेला करते थे.

गुडिया ने अपना बचपन मेरे छाँव तले ही बिताया था,
वो रात आज भी याद है मुझे जब गुडिया की शादी हुई थी,
ढोल-ताशों की आवाज मैं पूरा गाँव झूम रहा था,
सुबह के ओस की पहली बूंद के साथ उसका विदा होना,
गाँव के लोगों का वो फुट फुट कर रोना,
गुडिया का वो रोते हुए कहना, बाबु मैं ससुराल नहीं जाउंगी,
मैं यहाँ पली, इस दरख़्त के छाँव तले बढ़ी,
कैसे भूल पाऊँगी मैं वो बचपन जो मैंने यहाँ बिताया.

मैंने खुद से एक सवाल पूछ ही लिया,
कैसी रीत है, खुद के हृदय के मोती खुद से अलग करने का?
मैं रोया, बहुत रोया, पर कौन था जो मुझे सुनाता,
गुडिया तो कब की चली गयी, रह गया मैं अकेला, बिलकुल अकेला.

दिन बिताते गए, अब मैं बुढा हो चला था,
गाँव मैं सब कुछ बदल गया.
छल, कपट और स्वार्थ से ग्रसित हैं लोग,
न कोई किसी का भाई है, न कोई किसी का बंधू,
गुडिया की विदाई याद करके मैंने कहा,
अच्छा हुआ जो तू चली गयी गुडिया,
बहुत तकलीफ होती तुझे इस गाँव को देख कर,
यहाँ आज sabhi एक दुसरे के जान के दुश्मन बने हैं,
रिश्तों के पीछे भागने वाला इंसान पैसों के पीछे भाग रहा है,
अब यहाँ कोई किसी की विदाई मैं नहीं रोता,
अब तो माँ-बाप भी बेटियों को ऋण समझ कर विदा करते हैं,
अब शादी नहीं समझौता होता है गुडिया!
मैं तो tang आ गया हूँ इस स्वार्थी गाँव से,
फिर वो भी एक दिन आया जब स्वार्थ से घिरे इंसान ने मुझे भी नहीं बख्शा,
तब मुझे सत्य का ध्यान आया, मृत्यु ही सत्य है,
हँसते हुए मैंने खुद को उनके आगे पड़ोस दिया,
उनको तनिक भी दया नहीं आई मेरा वध करते हुए,
आज धरती पे गिरा पड़ा हूँ मैं,
एक एक कर मेरे सारे अंग अलग हो गए,
कोई आग जलने को ले जाता है, कोई घर बनाने को,
मुझसे कोई नहीं पूछता की तुम्हारी अंतिम इक्षा क्या है?
खुद के अस्तित्व को अपने मैं समेटे आज धरती मैं लीन हो रहा हूँ मैं,
मेरा अस्तित्व तो हमेशा तुम्हारे साथ बना रहेगा.

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