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दिल्लगी मुझे समझाओ ज़रा!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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होती है क्या ये मोहब्बत, किसे कहते हैं इश्क
कहते किसे हैं चाहत, दिल्लगी मुझे समझाओ ज़रा

क्यूँ बेवफा है हुस्न, क्यूँ होता है खफा कोई
जलता है क्यूँ ये दिल, जलन मेरे सीने की मिटाओ जरा

दामन हमेशा क्यूँ वो मझधार में छोड़ते हैं
क्यूँ बेखुदी में जीते हैं, क्यूँ घर-बार छोड़ते हैं

तडपना क्यूँ है काम दिल का, मचलना क्यूँ है अंजाम दिल का
हरे हैं ज़ख्म अब भी सीने में, मेरे महबूब को दिखलाओ ज़रा

तबाही है और चुभन है, के होंठ अश्कों के जाम पीते हैं
मेरी आँखों से गिरते लहू की बूंदों को, उसके आँचल तक पहुँचाओ ज़रा

मिटटी मैं हूँ, मिटटी मैं था, मिटटी में मिल रहा हूँ
सांस दर सांस बिखादी इस ज़िन्दगी के किस्से, कोई जाकर उसे सुनाओ ज़रा

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