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दो बीघा ज़मीन!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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साइकिल की घंटी टन-टनाते हुए मैं अपनी मस्ती में चला जा रहा था. आज मौसम बहुत खुशगंवार था. बदल लगे हुए थे. काले मेघ ऐसे लग रहे थे मानो किसी अप्सरा ने अपने काले गेसुओं को आकाश की ऊँचाइयों में बिखेर रखा है. दूर आकाश में, एक कोने में सूरज बादलों के साथ आंखमिचौली खेल रहा था. प्रकृति के इस मनोरम सौंदर्य का आनंद लेते हुए मैं माध्यम गति से साइकिल चलता, देवानंद की फिल्म का एक गाना , जो मुझे बहुत पसंद है, ‘मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया , हर फिक्र को धुंए में उडाता चला गया’, गाते हुए अपने आम के बागीचे की तरफ जा रहा था.
मेरे घर से आम का बगीचा जिसे हमारे यहाँ गाछी कहते हैं, ३ किलोमीटर की दुरी पर है. सो अगर आप माध्यम गति से साइकिल चलायें तो वहां पहुँचने में २०-२५ मिनट लग जाते हैं.
मैं अपनी धुन में चलता, उबड़-खाबड़ रास्तों और नालों को पार करते अपने बागीचे के करीब आ गया. बस पहुँचने ही वाला था की पीछे से किसी ने आवाज़ दी.
“मोहन बाबु, इतने दिनों बाद दिखे हैं. कहाँ थे?”, गोवर्धन जी ने मेरे पास आते हुए पूछा.
सांवला रंग, तनी हुई मूंछे और मोटा शरीर लिए, गोवर्धन बाबु, अखाड़े के पहलवान से लगते हैं. मैंने अपनी साइकिल रोक उनको नमस्कार किया. बातों ही बातों में उन्होंने बताया की रामबाबू के पिताजी का स्वर्गवास हो गया. आज श्राद्ध कर्म और भोज की व्यवस्था के लिए लोगों ने बैठक बुलाई थी. मेरा भी आनाजाना था रामबाबू के यहाँ सो मैं भी गोवर्धन बाबु के साथ हो लिया. रामबाबू का गाँव, प्रेमनगर, पास में ही था. रामबाबू बहुत ही नेक और मेहनती व्यक्ति थे. खेती-बारी उनका मुख्या व्यवसाय था. अब किसानों की दशा क्या है भारत में, ये कौन नहीं जनता. हमारे रामबाबू की दशा भी विदर्भ के किसानों की तरह ही थी. कभी बाढ़ के कहर ने, तो कभी सूखे की मार ने, रामबाबू के जीवन को, धोबी के कुत्ते के जीवन जैसा बना दिया था. न घर के न घाट के, घर में रोटी की मार और बहार लेनदारों की टोली. दोनों तरह के समस्याओं से जूझते हुए, रामबाबू ने पिछले साल किसी तरह अपनी पुत्री सावित्री का विवाह किया. सोचते-सोचते कब रामबाबू का घर आ गया पता नहीं चला.

छूते ही बिखर जाने वाले अंदाज़ में खड़ी उनकी झोपड़ी उनके मार्मिक परिस्थिति को बिना कहे बता रहा था. झोपडी के बहार २-३ खाट लगे हुए थे, जिसपर, बैठक के लिए आये हुए लोग बैठे हुए थे. मैं वहीँ परे हुए एक खाट पर बैठ गया. लोग आपस में विचार कर रहे थे की भोज में कौन कौन सी चीजें बने जाएँ. लोगों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये. मुखियाजी की माने तो, ब्राह्मणों का अपने परिजन की मृत्यु के बाद भोज करना, उन्हें मोक्ष के द्वार के अन्दर ले जाना है. इसलिए भोज अति आवश्यक बताया उन्होंने.
“भोज के लिए जितने पैसे चाहिए उसका एक अंश भी मेरे पास नहीं है.”, रामबाबू ने अपने भूख और गरीबी के कारन बुर्ज हो चुकी आवाज़ में कहा.
“आप पैसों की चिंता न करें. पैसों का इन्तेजाम हो जाएगा. समाज आपके साथ है.”, मुखियाजी ने रौबदार आवाज़ में रामबाबू को उत्तर दिया.

बैठक में आये लोगों ने निर्णय लिया की रामबाबू की २ बीघा ज़मीन, पंचायत के पास गिरवी रखी जायेगी. बदले में उन्हें इतनी रकम दी जाएगी जिससे श्राद्ध और भोज का काम विधिपूर्वक हो जाए. गरीबी के बोझ तले दबे हुए एक किसान पर ये अन्याय होता देख मेरा मन घृणा और क्रोध से भर उठा. चूँकि मैं उस गाँव निवासी नहीं था इसलिए मैंने मौन रहना ही उचित समझा. बात मेरे आदर्शों के खिलाफ थी इसलिए मैंने खड़े होते हुए एकबार सबकी तरफ देखा और अपनी साइकिल पर बैठ कर निकलने को हुआ. रामबाबू ने जाने का कारन पूछा तो मैंने बहाना बना दिया की मेरे घर पर कुछ आवश्यक काम है मुझे.

अभी थोड़ी दूर ही गया था की मन से एक आवाज़ आई. ये तो घोर अन्याय है! दाने-दाने के लिए मोहताज़ इन्सान को भोज के लिए बाध्य करना कहाँ का धर्म है? इश्वर ने कब कहा की तुम अपनी ज़मीन बेचकर श्राद्ध करो. नहीं-नहीं, इसे रोकना होगा. एक और किसान को आत्महत्या करने की वजह देना कहाँ के समाज के नियमों में लिखा है? कौन सा शास्त्र कहता है की आप अपनी रोटी उपजाने वाली ज़मीन बेचकर उनलोगों को भोजन कराएं, जिन्हें आपकी कोई चिंता नहीं? मैंने अपनी साइकिल घुमाई और सीधे मुखियाजी के सामने जाकर खड़ा हो गया.
“मैं आपलोगों से कुछ कहना चाहता हूँ”, साइकिल से उतरकर, बैठक में आये लोगों से मैंने कहा.
आप सभी इस बात को जानते हैं की रामबाबू ने कैसे पिछले वर्ष सावित्री की शादी की. ऋण और भूख से तो वो पहले ही पीड़ित हैं. अब आप उनके रोटी को छिनने पर क्यूँ तुले हैं? कौनसे भगवन को ये अच्छा लगेगा की अपनी आजीविका के साधन को बेच कोई उन्हें प्रसाद चढ़ाये? आप ये बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. रामबाबू, एक गरीब किसान हैं. इनकी सहायता करने के बजाय आपलोग उनके बच्चों के पेट को भरने के एकमात्र साधन, उनके खेत, को भी छीन लेना चाहते हैं. ये तो घोर पाप है.
“पाप-पुण्य के बारे में हमें न बताएं मोहन बाबु. हम जो भी कर रहे हैं रामबाबू की अनुमति से कर रहे हैं.”, मुखियाजी ने तुनकते हुए कहा.

रामबाबू की अनुमति, हमें ये बताइए की कौनसा बाप अपने पुत्र को भूखा सुलाने की जिद करेगा. या यही बता दीजिये की कौनसा पति अपनी पत्नी के दो वक़्त की रोटी छिनेगा. मुखियाजी, ज़माना बदल रहा है. दो बीघे ज़मीन और एक सांझ के भोज के बदले अपना इमान मत बेचिए. आज के महंगाई के इस दौर में जब बड़े-बड़े लोग दो वक़्त की रोटी जुटा पाने में असमर्थ हैं आप भोज की बात करते हैं. आज बदलाव की जरुरत है. अगर आप चाहते हैं की समाज आगे बढे तो इस पुरानी परंपरा को तोडना पड़ेगा.
“आप कौन सा बदलाव लायेंगे मोहनजी, ज़रा हमें भी समझिए”, एक वृद्ध ने व्यंग्य भरे अंदाज़ में कहा.
“भोज में कितने पैसे लगते हैं”, मैंने प्रश्न किया?
“यही कोई १.५-२ लाख रूपये”, मुखियाजी ने जवाब दिया.
“अगर पुरे एक वर्ष में मृत व्यक्तियों के भोज में खर्च हुए पैसों को अगर साथ रखें तो २०-२५ लाख होते हैं. है की नहीं”, मैंने पूछा?

अब ज़रा सोचिये की अगर पुरे वर्ष में १० व्यक्ति मरते हैं. उनमे से ६ अमीर हैं और चार गरीब. गरीब तो वैसे भी भोज करने में सक्षम नहीं होते. हाँ अगर अमीरों को भोज से इतना ही लगाव है तो सारे पैसे पंचायत के पास जमा कर दें. एक वर्ष में इकठ्ठा किये हुए पैसों से गाँव में बेरोजगारी ख़तम करने के लिए और नवयुवकों रोजगार देने के लिए अगर कदम उठाये जाएँ तो इससे बेहतर क्या हो सकता है. अब आप लोग ही बताएं. एक सांझ भोज अच्छा है की १० बेरोजगारों के पुरे परिवार के पेट को आजीवन भरने के लिए उन्हें रोज़गार दिलाना. अगर आप पुण्य की ही बात करते हैं तो इससे बड़ा पुण्य क्या होगा.
“मुखियाजी, आप गाँव के प्रधान हैं. ऐसे साहसिक कदम उठाने से ही गाँव का भला होगा इस बात को समझने का प्रयत्न कीजिये”, मैंने मुखियाजी की तरफ देखते हुए कहा.
“आपने तो हमारी आँखें खोल दी मोहनजी. पंचायत ये निर्णय लेती है की रामबाबू भोज नहीं करेंगे. श्राद्ध के खर्चे का वहन भी पंचायत ही करेगी. आज से गाँव में भोज पर पाबंदी है और इसके विरोध करने पर उसपर पंचायत मुकदमा करेगी. मैं गाँव के लोगों से आग्रह करता हूँ की भोज पे खर्च होने वाले पैसे आप पंचायत के पास जमा कराएं जिसे पंचायत गाँव और समाज के विकास में खर्च कर सके. इस कार्य के लिए एक नयी कमिटी बनायीं जायेगी.”, मुखिया जी ने खड़े होकर लोगों से कहा.

सारे लोग उस बात पर सहमत हो गए. मैंने मन ही मन इश्वर को धन्यवाद दिया की आज उसने मुझसे एक पाप होने से बचाया. साथ-साथ मैं इस बात पर भी खुश था की अनजाने ही, लोगों ने प्रजातंत्र की सार्थकता को आज साबित कर दिया था. क्यूंकि प्रजातंत्र में सत्ता में भागीदारी सिर्फ नेताओं की नहीं आम जनता की भी होती है. सिर्फ सरकार ही लोगों के सहयोग करने के लिए उत्तरदायी नहीं है बल्कि लोगों को खुद की मदद भी करनी होगी.

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