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टूट कर चाहा तुझे, सितम भी हंस कर सहा,
लहू बहते रहे आँखों से, मुँह से कुछ ना कहा,
सितमगर इश्क करना तेरी फितरत नहीं थी जब
मेरे हर लफ्ज़ और ज़ज्बात पर तू चुप क्यूँ रहा,
नज़र कि बात करते थे, दिलों के लफ्ज़ कों ना जाना
कसम खायी खुदाया की, साँसों के बंधन कों ना माना
करोगे ख़ाक इश्क तुम, मुझे यूँ जलाकर
रहोगे यूँ ही अकेले, मेरे दिल कों रुलाकर
तबियत से कभी तुने कहाँ आवाज़ दी ज़ालिम
यूँ ही परेशान थे हम अंधेरों, में उजालों में
कभी चाहा नहीं तुने, ये कब हम जान पाए,
उलझ कर रह गए तेरे उन शातिर सवालों में
तेरे हर अश्क के बदले, लिखा हमने किताब-ए-इश्क
गज़ल बन गयी जवानी और हम देखते रहे
तेरी हर याद के बदले, गुजारी मैंने सदियाँ,
तुम ख़ामोशी से हमपर नफरत के पत्थर फेंकते रहे.
मुबारक ये जहाँ तुझको, तेरे क़दमों में देता हूँ
रहे तू खुशियों कि पलकों पर, दुआ तुझको मैं देता हूँ,
मेरे इस टूटे हुए दिल कों, लिए मैं साथ जाता हूँ,
दिया तुने जफा है, ले अब मैं जफा निभाता हूँ.
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