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प्यार के चार रंग (अध्याय- प्यार की परिभाषा-१३)

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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मैंने तुम्हें परेशान तो नहीं किया. आपकी बहुत याद आ रही थी. सोचा आपको फोन ही कर लूँ. दस दिन से कोल्कता मैं थी कल ही आई हूँ”. स्वस्तिका की आवाज मेरे कानों में पहुंची. आगे……..

स्वस्तिका का अचानक यूँ फोन करना मुझे ख्यालों के बादल तक ले गया. ऐसा तीसरी बार हुआ था मेरे साथ. हर बार एक नया एहसास. पहली बार आँखों की भाषा से दिल की पीड़ा समझ आई. सपनों को देखना, और उसके बारे में सोचना, प्रतिमा के दीदार के बाद ही तो शुरू हुआ था ये सब. चित्रलेखा के एहसास और उसके प्रेम में, कई सदियाँ जी गया था मैं, पिछले दो सालों में. उसकी हर बात दिल पर हाथ की रेखाओं की तरह अमिट छाप छोड़ गयी थी. आँखें हवा पर उसकी तस्वीर बना उसे निहारा करती, कान भंवरों के संगीत में भी चित्रलेखा को ही ढूंढा करते. होंठों पर सुबह-शाम उसी का तो नाम था. हर एहसास में उसका एहसास, हर ख्याल में उसका ख्याल, धडकनें भी बिना रुके उसका ही नाम तो लेती रहीं. जीवन के इन दो एहसासों को अभी तक परिभाषित नहीं कर पाया था था मैं. प्रेम की परभाषा की तरह मेरे ये दो एहसास भी अपरिभाषित ही थे. हाँ, प्यार के दो हसीन रंगों ने मेरे जीवन को इन्द्रदानुष के काफी करीब ला दिया था.

“आप सुन रहे हो न? “, स्वस्तिका ने मुझे बादलों के पार की मेरी उड़न को रोका.

“हाँ, कहो.”

“मैं इस बार दिल्ली आकार आपसे अकेले मिलना चाहती हूँ. आप मिलोगे मुझसे?”

“क्यूँ नहीं, आकर मुझे फ़ोन करना”

स्वस्तिका के फ़ोन रखने के बाद मैं उसके बारे में ही सोचने लगा. क्या कारन हो सकता है? क्यूँ मिलना चाहती है वो मुझसे. कुछ तो है, जो उसे मुझसे मिलने पर मजबूर कर रहा है. अगर हदों को तोड़ने की बात आई तो क्या करूँगा मैं? चित्रलेखा, भुला कहाँ था मैं उसे. भूल भी कैसे सकता था. दिल के एक कोने में अभी तक उससे मिलन की आस दबी ही हुई थी. एक ऐसा आस, जो हर दिन, हर पल, मुझमे मौजूद था. इसी जद्दोजहद में, घरी की सुइयों ने २ बजने की सूचना मुझ तक पहुंचाई. अब एक घंटे में ऑफिस की कैब भी आनी थी. नहीं सोने की वजह से आँखों में जलन सी महसूस हो रही थी. ऑफिस नहीं जाने का मन बना लिया मैंने. अगले दिन शनिवार था, तीन दिन की छुट्टी हो जाएगी. यही सोचकर मैं ऑफिस नहीं गया. ४ बजे खाना खा कर सोते ही ऐसी नींद आई की अगले दिन ८ बजे उठा.

शनिवार की शाम, धीरे-धीरे दोस्त मेरे फ़्लैट पर इकठ्ठा होने लगे. शिव, राजन, अवनीश आ चुके थे, शंकर का इन्तेजार हो रहा था. शंकर, हमारे गाँव की क्रिकेट टीम का सबसे तेज बोलर हुआ करता था. उसकी बोलिंग आते ही बल्लेबाज, विकेट छोड़ कर खड़े हो जाते थे. आओ भाई, आउट करदो. हाँ, मुंह पर बोल मत मारना. शराब और हुस्न का दीवाना भी था. एक साथ कई प्रेमिकाओं को हैंडल करने का अनुभव था उसे. मीना के लिए एक नंबर, शमिता के लिए दूसरा, आरती के लिए तीसरा और जहान्वी के तो घर पर जाकर ही बात हो जाती थी. वो हमारे यहाँ पहली बार आ रहा था. मैं, शिव और बिपिन तो उससे वाकिफ थे लेकिन राजन और अवनीश, अभी तक उससे मिले नहीं थे. हम पाँचों बालकनी में खड़े होकर बातें कर रहे थे, शंकर हमें दूर से ही आता दिख गया. दोसरे बदन और कसरती बदन का शंकर, आकर्षक युवकों के श्रेणी में आता है.

दरवाजे पर आते ही अपने पुराने अंदाज में अपनी बत्तीसी दिखाते हुए उसने मुझसे पूछा, क्यूँ भाई, कहाँ हो आजकल? तीन साल से तो दर्शन दुर्लभ हैं तुम्हारे. वो तो शुक्र है गाँव की इस बार की यात्रा में रौशन, तुम्हारा छोटा भाई मिल गया. उसी से तुम्हारा मोबाईल नंबर लेकर तुम्हें फ़ोन किया. तब जाकर सरकार से मुलाकात हो पायी है.

राजन और अवनीश से परिचय करवाने के बाद वो बेद पर एक तरफ बैठ गया. उसके बाद उसकी प्रेमिकाओं के किस्से शुरू हुए. अब लड़कों को लड़कियों के किस्सा सुनने से ज्यादा इंटरेस्ट तो और किसी चीज़ में होती नहीं सो हमने इस नियम को तोड़े बिना, किस्सों की तरफ अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया. उसने शमिता से लेकर जहान्वी तक के किस्से सुनाये. हम उसके चरों तरफ आसन लगाये कवि सम्मलेन के श्रोता की तरह उसकी कहानी को सुनते रहे. कहानी ख़तम होते ही उसके दुसरे शौक की बारी थी. और अपने इस शौक के लिए किसी और पर आश्रित रहना उसके आदर्शों में शुमार नहीं था. शराब की दो बोतलें वो लेकर ही आया था. मैं बाज़ार से बांकी के सामान ले आया.

करीब ११ बजे खाना खाने के बाद हमारा मन पैदल घुमाने का हुआ. हम कटवारिया सारे से जे.एन.यु की तरफ निकले. रात को सुनसान सड़क पर टहलने का अपना ही मज़ा है. जब प्रेम के रंग आपकी आँखों पर असर कर चुके हों तो घुमने का मज़ा दुगुना हो जाता है. वही हुआ था मेरे साथ. उन सब के साथ चलते हुए भी मैं अलग था. एक साथ प्यार के तीनों रंगों के बाते मैं सोचता, चलता रहा. वो क्या कह रहे थे, न मेरे कान सुन रहे थे और न ही मेरे मस्तिष्क को समझ आरहे थे. मैं तो बस अपने ही ख्यालों में खोया था.

अचानक शंकर की एक बात ने मुझे सोते से जगाया” अरे यार, ये प्यार-व्यार कुछ नहीं होता. लडकियां पटाओ , बेड पर ले जाओ और बस. इससे ज्यादा कुछ नहीं है ये प्यार. अरे ये प्यार-व्यार कुछ नहीं होता. सब मज़े लूटने के बहाने हैं. बहुत देखा और सुना है मैंने लोगों को कहते हुए. मैं उससे प्यार करता हूँ मैं उससे प्यार करता हूँ. सब जिस्म से प्यार करते हैं.

ये क्या बकवास कर रहे हो? दस लड़कियों के साथ सो चुके हो इसका मतलब ये नहीं की तुम्हें प्यार समझ आ गया. प्यार, जिसकी परिभाषा हर कवी की कल्पना से परे है, हर लेखक के वर्णन के पार, उस प्यार को तुम कैसे परिभाषित कर सकते हो, इतना कहते-कहते हम गंगा ढाबा तक पहुँच गए. गर्मियों का मौसम था इस लिए गंगा ढाबा अभी तक खुला हुआ था.

मैंने उसे फिर कहना शुरू किया. दोस्त तुम जिसे प्यार कहते हो, वो वासना है. प्यार और वासना में बहुत फर्क है. कभी आसमान में उड़ाते हुए पक्षी को देखकर बरबस ही तुम्हारी आँखें उसकी ओर आकर्षित हुई होगी, तुम्हे उसका अनंत आकाश में यूँ मदहोश हो उड़ना, बिना रुके, बिना थके, हर दीवार और बंधन से मुक्त उस पक्षी को देखकर, तुम्हारे मन में जिन एहसासों ने जन्म लिया वही प्यार है. अपने बूढ़े हो चले पिता की थकी हुई आँखों देखकर, तुम्हारा ह्रदय पीड़ा से कभी तो भरा होगा? पिता की उँगलियाँ थम कर जिस्पल तुमने चलना सिखा और अपनी चंचल आँखों से जब तुमने अपने पिता की तरफ हसरत भरी निगाह से देखा और तुम्हारे एहसासों को तुम्हारे पिता ने बिना कहे समझ कर क्या तुम्हें अचंभित नहीं किया? बिना कहे तुम्हारी हर जरुरत को समझना ही तो तुम्हारे पिता का प्यार था.

हम दोस्त, हर पल तुम्हारे साथ रहे, हर दुःख में हर सुख में, हमारे ह्रदय में तुम्हारे लिए और क्या हो सकता है प्यार के सिवा?

मैं कहता जा रहा था. सभी एकटक मुझे देख रहे थे. शायद मेरा ये रूप उन्होंने पहली बार देखा था. मेरा ये रूप तो मैंने भी पहली बार देखा था. मुझे समझ नहीं आ रहा था की ये सारी बात मैं खुद कह रहा था या कोई मुझसे कहवा रहा था.

मुझे प्यार है. मुझे आज भी याद है जब मैंने पहली बार अपनी प्रेमिका को अपनी आँखों से देखा. प्यार तो मुझे, उसे पहली बार देखने के ९ महीने पहले ही हुआ था. लेकिन अपने प्रेम का इज़हार मैंने पहली बार अपनी प्रेमिका के गोद मैं सर रख कर और उसकी आँखों मैं आँखें डाल कर किया. मुझे आज भी याद है इस धरातल पर मौजूद अब तक के सबसे खुबसूरत चेहरे का दीदार. आँखें जैसे प्रेम का पर्याय थीं, उसकी मुस्कराहट के सामने दुनिया की हर खुबसूरत चीज़ कम ही नज़र आती थी. उसकी हर छुअन प्रेम की चाशनी से सराबोर हो मेरे अन्दर के इंसान को प्रेम की परिभाषा समझा रही थी. मैं उसकी गोद मैं लेटा एकटक उसे ही देखे जा रहा था. जैसे वो सारा प्रेम वो सारा स्पर्श और वो सारी अनुभूति मैं आज ही पा जाना चाहता था. फिर उसने मुझे सीने से लिपटा लिया. आह, वो आनंद जो मैंने उस वक़्त महसूस किया वो मैं बयां नहीं कर सकता. मैं खिलखिला के हँसना चाहता था, जोर जोर से रो कर अपने प्रेम का इज़हार करना चाहता था और उसे ये बताना चाहता था की जो प्रेम उसने मुझे दिया है उसका कोई पर्याय नहीं. लेकिन प्रकृति के नियमों से बंधा मैं नवजात शिशु अपने भावनाओं को अपनी प्रेमिका को समझा नहीं सका. हाँ, मुझे अपनी माँ से प्यार है, तब से है जब मैं इस दुनिया मैं आया और पहली बार अपनी आँखें खोली.

मेरी माँ दुनिया की सबसे अछि माँ है. मेरे पुरे परिवार का भार अपने कंधे पे उठाये जीवन के हर परेशानियों से लडती हुई आज उसकी आँखें थक गयी हैं. अब वो युवती नहीं रही. उसकी आँखें अब कमजोर हो गयी हैं. उसके शरीर पे उम्र का राक्षस हावी हो गया है. मेरे ह्रदय में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. क्या में उस कल्पवृक्ष को खो दूंगा जो कभी मुझे अपने छाँव में लोड़ियाँ गा कर मुझे चैन की नींद सुलाता था, क्या वो उँगलियाँ अब हमेशा के लिए मुझसे छिन जायेंगी जिन्हें पकड़ कर मैंने ज़िन्दगी के हर कठिन रास्ते को आसानी से पार किया ? क्या वो ममता और निस्वार्थ प्रेम भरी आँखें हमेशा के लिए बंद हो जाएँगी? वो आलिंगन जिसने धरती पर कभी मेरा स्वागत किया था क्या उससे में हमेशा के लिए बिछड़ जाऊंगा? आह! ये वेदना मुझसे अब बर्दाश्त नहीं होती.

मेरी माँ ने ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मेरा साथ दिया. कभी बुरे से लड़ने की ताकत दी तो कभी अच्छा करने पर होले होले मेरे बालों को सहला कर मेरा उत्साह बढाया. लोग आते रहे मेरी ज़िन्दगी में और अपना किरदार निभा कर चले गए लेकिन मेरी माँ ने कभी मुझे अपने से अलग नहीं होने दिया. ज़िन्दगी के हर मोड़ पर अपनी दुआ, ममता और प्रेम की दवा से मेरा साथ दिया. मुझे आज भी याद है जब मुझे क्रिकेट खेलते वक़्त चोट लगी थी.मैं जैसे ही घर पहुंचा, माँ ने मेरी चोट को देखते ही मुझे गले से लगा लिया. “ये क्या किया तुने. कहाँ लगाई चोट? तुझे अपनी ज़रा भी परवाह नहीं, तुझे इस बात की भी परवाह नहीं माँ पर क्या बीतेगी?” आँखों में आंसुओं का सैलाब लिए वो एक सांस में ही सारा कुछ कह गयी. मुझे ये याद नहीं की मेरा घाव कैसे ठीक हुआ. हाँ, मेरी माँ के प्रेम से बड़ी दवा तो शायद अभी तक नहीं बनी. इसलिए मैं ये यकीन के साथ कह सकता हूँ की मेरे माँ के ममतामयी स्पर्श से ही घाव भरा होगा.

माँ, ये शब्द ही एइसा है की हर इंसान चाहे वो छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, ताकतवर हो या कमजोर, इस शब्द से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है. मैं भी जुड़ा हूँ और मेरा तो पहला आखरी प्रेम मेरी माँ है. हाँ मैं प्यार करता हूँ अपनी माँ से करता हूँ और उसदिन से करता हूँ जब मैंने अपनी आँखें खोली थी. आज वो वृक्ष जिसने कभी अपने छाँव तले मुझे जीवन के सूर्यताप से बचाया है, बुढा हो गया है लेकिन उस वृक्ष का एक बीज मेरे अन्दर मौजूद है जो हमेशा मुझे इस बात की प्रेरणा देता है की स्वयं को एक विशाल वृक्ष बनाओ इतना विशाल की न चाहते हुए भी इंसान जीवन के ताप से बचने के लिए तुम्हारे छाँव मैं चैन के दो पल गुजार सके. अपनी माँ के साथ मेरे इस अनूठे प्रेम सम्बन्ध के बारे में तुम क्या कहना चाहते हो शंकर?

और चित्रलेखा, उसे तो मैंने छुआ भी नहीं. क्या मेरा वो एहसास प्यार नहीं था? क्या आज भी चित्रलेखा की तस्वीर का मेरी नज़रों के सामने बार-बार आना, प्यार नहीं है? उसके दूर चले जाने के बाद की पीड़ा और जुदाई के संग्गेत में मदहोश इस मन की भावनाओं को क्या कहोगे तुम?

सब मौन थे. सुनाने वालों की संख्यां बढ़ गयी थी. लोग मेरी तारफ देख रहे थे. मुझे ऐसा लगा की मैं प्रवचन दे रहा हूँ और लोग बस मुझे सुन रहे हैं. समझाने और जानने की कोशिश किये बिना.

“ठीक है, ठीक है. अब ज्यादा भाषण मत दो. मेरे सर में दर्द हो गया. एक तो दारु का नशा ऊपर से तुम्हारी बकवास. रहने दो”, शंकर ने एक-एक शब्द को चबा कर कहा.

क्रोध तो आया मुझे लेकिन, सह गया. कर भी क्या सकता था? मैं भी तो गलत हो सकता था या प्यार के बारे में मेरी जो सोच थी वो ही गलत थी. कुछ समझ नहीं आया मुझे. बिना कुछ कहे मैं वहां से उठ कर फ़्लैट की तरफ चल पड़ा. अतार्द्वंद में उलझा, कब अपने बेड पर निढाल हो गिर पड़ा मुझे समझ नहीं आया.

स्वस्तिका ने आज मिलने को कहा था. मेरे फ़्लैट पर ही आने वाली थी वो. बिपिन गाँव गया हुआ था. मैं अकेला ही था घर पर. दोपहर के १ बजे वो फ़्लैट पर आई.

“कैसे हैं आप? मेरा ही इन्तेजार कर रहे थे क्या?”, स्वस्तिका ने अन्दर आते ही पूछा.

मैंने उसे देखा तो बस देखता ही रह गया. आज कुछ ज्यादा ही खुबसूरत लग रही थी वो…..

क्रमशः:

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