प्यार के चार रंग(अध्याय- बस, स्वस्तिका और नर्मदा का वार्षिक उत्सव -१२)
मैं कवि नहीं हूँ!
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सीमा जी आपने रफ़्तार पकड़ने की बात की. लीजिये हम रफ़्तार से ही इस भाग की शुरूआत कर रहे हैं……
क्यूँ हुआ ऐसा, मैं नहीं जानता लेकिन कुछ तो बदला था. मैं या समय? आगे…………………
समय, हाँ ये समय ही तो था जिसकी तेज़ रफ़्तार में मैं भी बदलने लगा था. तेज़ रफ़्तार, इक पल में ही तो सब बदला था, इससे ज्यादा गति समय की कहाँ देखी थी, अभी तक. कल तक सब था मेरे पास, चित्रलेखा, नौकरी, ज़िन्दगी में कुछ करने का जूनून, जीने और मरने का जूनून. एक चित्रलेखा के जाने से सब बदल गया, मैं भी और समय भी.
बस से बहुत दिनों बाद सफ़र कर रहा था. महीने के अंतिम दिन थे, हाथ थोडा तंग था. सोचा बस में जाने से दो पैसे बच जायेंगे. मैं बदरपुर जाने वाली बस में बैठ, बीती बातों को याद करता जा रहा था. साकेत पर बस रुकी, मेरे सामने एक २८-२९ वर्षीया महिला आकर खड़ी हो गयी. महिला खड़ी हो तो सीट पर बैठना मुनसिब नहीं लगा मुझे.
“बैठिये”, मैंने सीट से उठते हुए उस महिला से कहा.
“थैंक यु”, महिला मुस्कुराते हुए बैठ गयी.
बहुत ही खुबसूरत थी वो. मुझे उस दिन ही पता चला की बंगाली स्त्रियाँ कितनी सुन्दर होती हैं. बड़ी-बड़ी आँखें, सांवला रंग, छरहरा बदन और मीठी हंसी, मैं क्या कोई भी बरबस खिंचा चला आता उस खुबसूरत चेहरे की तरफ. उसकी तरफ नहीं देखने की मेरी हर कोशिश नाकाम रही. हर बार आँखें, छुप-छुप कर उसके रूप को निहार ही लेतीं. खानपुर बस स्टैंड पर उसके साथ वाली सीट खाली हो गयी. मैं उसके पास वाली सीट पर बैठ गया. मैं भूल गया की वो शादी-शुदा है. मुझे बस इतना ख्याल रहा, की उसकी जादुई आँखों ने मुझे मदहोश कर दिया है. उसके शरीर से आ रही भीनी-भीनी खुशबु ने सब भुला दिया.
ये क्या हो रहा है मुझे. कहीं मैं भंवरा तो नहीं बनता जा रहा. हर खुबसूरत फुल, को सब भूल कर प्यार करता हूँ, फुल के डाली से टूटने पर दर्द भी होता है. एक और फुल देखा, एक और बार वही एहसास, वही चाह! जीवन, नदी है, रूकती नहीं चलती जाती है! अनवरत, हिमालय को पार करती, घटाओं के साथ अठखेलियाँ करते, बहारों को मुंह चिढाती, पत्थरों का सीना चीर, वृक्षों को अपने कल-कल का संगीत सुनती, चलती जाती है, चलती जाती है.
“आपको कहाँ जाना है”, उसके प्रश्न ने मुझे सपने से वापस बुलाया.
“हं. ओह, सॉरी! मुझे बदरपुर जाना है. आप कहाँ तक जा रही हैं.”
“मैं भी बदरपुर ही जा रही हूँ. आप वहीँ रहते हैं क्या?”
“नहीं मैं कटवारिया सारे रहता हूँ. और आप? क्या करती हैं आप?”
“मैं साकेत में रहती हूँ, डी ब्लोक. अभी पिछले साल ही शादी हुई है हमारी. लव मैरेज. ८ साल से अफेयर था हमारा. माफ़ कीजियेगा, मैं कुछ ज्यादा ही बोल गयी”
उसकी आँखों में अक अजीब सी उलझन दिखी मुझे. शायद परेशान थी वो. थोड़ी देर में ही मुझसे दोस्ती भी हो गयी उससे. जाते वक्त मेरा मोबाईल नंबर ले गयी. हैरान-परेशान, इस आधे घंटे की उलझन में उलझ गया मैं. क्या हुआ कुछ समझ नहीं आया, क्या होगा कुछ समझ नहीं आ रहा था? इसी प्रश्न में उलझा रहा कुछ देर. बदरपुर से काम ख़तम कर मैं वापस कटवारिया आ गया. शाम होते-होते सब भूल गया
. बिपिन एक नयी किताब लाया था. दी अल्केमिस्ट. उसने किताब की काफी तारीफ़ की. मेरी उत्सुकता भी बढ़ गयी. किताब लेकर मैं पढ़ने बैठ गया. शनिवार की वजह से छुट्टी थी मेरी. किताब के पहले पृष्ठ से ही मेरी उत्सुकता बढ़ गयी. एक गडेडिया, और एक रेत-परी, की अद्भुत प्रेम कहानी और नायक के स्वप्न की प्यास मस्तिष्क में घर कर गयी. मैंने ४ घंटे में पूरी किताब पढ़ डाली. किताब पढ़ कर बस एक ही वाकया के बारे में सोच रहा था. थोट बिकम थिंग! सोच ही यथार्थ का वास्तविकता के धरातल पर लाता है. इस वाकया ने बहुत गहरा प्रभाव किया था मेरे मस्तिष्क पर. थोडा बहुत मैं इस बात पर यकीन भी करने लगा था. मैं थोडा अलग था. मैं हीर, रांझा, मजनू नहीं था, मैं देवदास भी नहीं था. मेरे दिल के अन्दर एक कोने में चित्रलेखा को पाने की प्यास हमेशा रहेगी.
“हेल्लो, हेल्लो कहाँ है, मुझे उठाइए, ज़रा पास तो आइये, कहाँ हैं आप, मेरे बाप”, मोबाईल के रिंगटोन ने मेरा ध्यान खिंचा.
“हेल्लो, पहचाना. मैं स्वस्तिका बैनर्जी. हम बस में मिले थे. याद है”, स्वस्तिका ने फोन पर अपनी मदहोश कर देने वाली आवज़ में कहा.
एक नशा था उसमे. एक ऐसी कशिश थी उसकी आँखों में की न चाहते हुए भी मैं सम्मोहित हो रहा था. उन गहरी आँखों का आकर्षण फिर से मुझ पर चढाने लगा. उससे बातें करते-करते कब उसे पसंद करने लगा मैं, पता नहीं चला. ये कर कर रहा था मैं. फिर से एक भूल! फिर से उसी तरफ जा रहा था, जिस राह की कोई सीमा नहीं, बस चलते जाना है, पाने की आस तो है, मिलने की प्यास भी है, लेकिन ‘वहां’ तक तो कोई नहीं पहुंचा अभी तक. सब जानते हुए भी अंजान बन रहा था मैं. ‘इस बात की परवाह किये बिना की स्वस्तिका क्या सोचती है मेरे बारे में, मैं दिल हार गया.
काफी देर बात हुई हमारी. एक-दुसरे को अच्छी तरह जाना था हमने.धीरे=धीरे हमारी बातें मुलाकातों में बदल गयी.
“निखिल, एक बात कहूँ आपसे. हमें नहीं मिलना चाहिए. मैं शादीशुदा हूँ. डर लगता है”, एक दिन साकेत सिटी वोक मोल की हमारी मुलाकात पर वो बोली.
मुझे लगा शायद वो सही कह रही है. उससे इस तरह मिलना ठीक नहीं था. मुझे उससे दूर ही रहना चाहिए. हमारी फ़ोन पर ही बातें होती थी. उसने भी अपने दिल की बात बता दी और मैंने भी. वो भी ये जान चुकी थी की मैं उसे पसंद करता हूँ और मैं भी ये जान चूका था की वो मुझे चाहने लगी है.
जे.एन.यु में नर्मदा होस्टल का वार्षिक महोत्सव था. राजन ने फोन करके मुझे, बिपिन और शिव तीनों को बुलाया था. ऑफिस से छुट्टी पहले ही ले ली थी मैंने. अब तो चित्रलेखा का बहन भी नहीं था. और घर पर रह कर क्या करता, याद करता, उसे, जो मैं करना नहीं चाहता था. शिव हमारे कमरे पर ही आ गया. वहां से हम तीनों जे.एन.यु के लिए निकले. नर्मदा होस्टल पहुँचाने से पहले, हम गंगा ढाबा पर जाकर चाय पीने के मुद में थे. वहां पहुँच कर मैंने सिगरेट सुलगा दी. बिपिन तीन चाय लेकर आ गया. बातें करते हुए हम चाय पीने लगे. चाय पीकर हम नर्मदा होस्टल की तरफ चल दिए.
नर्मदा होस्टल में बहुत चहल-पहल थी. होस्टल की सीढियों से लोग चढ़-उतर रहे थे. कोई पंजाब का मुंडा लग रहा था, तो कोई गाँव की गोरी. रंगारंग कार्यक्रम शुरू हो चूका था. दो तीन गानों के बाद डांस की बारी आई. साउथ इंडियन डांस, यही नाम सुझा मुझे. कमल का डांस किया उन्होंने. एक स्टेज पर अनेकता में एकता भारत की विशेषता, का मंचन हो रहा था. लोग इस बात को समझ रहे थे या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन, बिपिन और शिव को मैंने इस बात को ज़रूर बताया. पंजाब से सिंध तक, बिहार से मणिपुर और मिजोरम तक, महाराष्ट्र से तामिलनाडू तक, या यूँ कहूँ की कश्मीर से कन्याकुमारी तक की सैर, एक शाम में करना अद्भुत था. जे.एन.यु के इस अनुभव ने बहुत आनंद दिया.
होस्टल के अन्दर ग्राउंड फ्लोर पर डी.जे लगा हुआ था. लोग नाच रहे थे. नृत्य या नाच, जो भी नाम है इस बला का, मैं बस इतना जानता हूँ लोग नाचते वक्त सब भूल जाते हैं. दीं-दुनिया से बेखबर होकर कहीं, किसी दूर की दुनिया में चले जाते हैं. जहाँ न ग़म है और न ख़ुशी है, जहाँ न आस है और न ही कोई प्यास है, एहसासों के एहसास को भी लोग भूल जाते हैं जहाँ, एक ऐसा प्रदेश जहाँ सब है और कुछ भी नहीं. शायद यही एक कारण है की मीरा कृष्ण के प्रेम में बावरी हो नाचने लग जाती थी, सब कुछ भूल कृष्ण में लीन हो जाती थी, खो जाती थी, स्वयं मैं, अपमे ह्रदय में बसे अपने कृष्ण में. नाचते-नाचते मैं भी खो गया. सबकुछ भूल गया मैं. अपना आज, अपन कल, हर पल जैसे रुक गया. हर परवाह से बेपरवाह हो मैं खूब नाचा. जैसे आज ही सब ख़तम हो जाएगा, आज एक बाद फिर न नाच पाउँगा. लोग मेरी तरफ देखने लगे. लेकिन मुझे होश कहाँ, मैं तो खो चूका था अपने आप में, अपने ह्रदय की गहराई में.
“निखिल, घर नहीं चलना क्या?”, बिपिन ने आकर मुझे फिर से जमीन पर लाते हुए कहा.
“चलता हूँ, बस दस मिनट रुक जा”, इतना कह कर मैं फिर से नाचने लगा.
थोड़ी देर बाद हम तीनों घर पहुंचे. नाचते-नाचते काफी थक गया था मैं. बेड पर जाते ही आँख लग गयी. सुबह उठा तो दस बज रहे थे. आज ऑफिस भी जाना था. पेट को दिल की पीड़ा का एहसास कहाँ होता है. दिल रोये या हँसे, इसे तो हमेशा भूख लगती ही है. ऑफिस जाने में अभी ४ घंटा बांकी था. नाश्ता करके मैं टी.वी देखने लगा. बिपिन पास वाले कमरे में पढ़ रहा था. कुछ देर बाद मेरे कमरे में आकर बैठ गया. मैंने माधवी के बारे में पूछा, उसने बताया की माधवी से उसकी रोज बात होती है, पिछले महीने जब १० दिन के लिए घर गया था तो ५ बार मुलाकात भी हुई थी उनकी. जो भी हो जाए, माधवी से ही शादी करने की बात कर रहा था. घरवाले अगर राजi हो गए तो उनकी रजामंदी से अगर राजी नहीं हुए तो भाग कर. भागकर शादी करने का विचार मुझे कुछ अटपटा लगा लेकिन उस वक्त मैं चुप ही रहा. अपनी खुद की समस्या से इतना पीड़ित था की किसी और की समस्या को समझ पाना संभव नहीं था. वो कहता रहा और मैं उसकी बातें सुनाता रहा.
खाना खा कर जूता पहन ही रहा था की कैब ड्राईवर का फ़ोन आ गया”सर गाडी दस मिनट में आ रही है”.
मैं फटाफट तैयार होकर पिक-अप प्वैंत पर पहुँच गया. अभिषेक को पिक करने के बाद गाडी सीधे ऑफिस जाकर रुकी. आज से मुझे न्यू जर्ज़ी उरोलोग्य, जो की हमारा सबसे बड़ा क्लायंट था, की इलेक्ट्रोनिक ब्लिंग रिपोर्ट चेक करना था. क्लायंट काफी बड़ा था सो काफी मेहनत करनी थी. घर से ही सोच कर आया था की आज ओवरटाइम करूँगा और इस क्लायंट की साड़ी रिपोर्ट तैयार कर दूंगा. ऑफिस पहुंचाते ही मैं अपने काम में जुट गया. आज चाय पीने के लिए भी निचे नहीं गया था मैं. रात के दस बजने वाले थे.
“झाजी, न्यू जार्जी ने तो हमारी बैंड बजा दी है. आप भी चाय नहीं पी पाए और मैं भी. चलिए खाना खाकर आते हैं हैं. सुट्टा भी मार लेंगे.”, अभिषेक ने मेरे पास आकर कहा.
मैं और अभिषेक खाना खाकर बाहर सिगरेट पीने निकल गए. बाहर आकर वो अपनी गर्लफ्रेंड से बातें करने लग गया और मैं धुआं छोड़ने लगा. थोड़ी देर तक बहार टहलने के बाद ऊपर पहुँच कर मैंने फिर से अपना काम शुरू कर दिया. ४ घंटे के ओवरटाइम के बाद क्लायंट की साड़ी रिपोर्ट तैयार हो गयी. सुबह सात बज गए घर पहुंचते पहुंचते. घर पहुँच कर कपडे बदले और सोचा दूध पी कर सो जाऊँगा. दूध गर्म होने के लिए गैस पर डाल कर मैंने टी.वी ऑन कर दिया. टीवी पर न्यूज देखते हुए मैं दूध पीने लगा. दूध का ग्लास एक तरफ रख कर. बेड पर लेट गया. दिन निकल आया था सो आँखों से नींद गायब हो गयी थी. काफी प्रयास के बाद भी नींद नहीं आई. सोचा नहा कर देखता हूँ.
नहा कर वापस कमरे में आया और टीवी ऑफ कर सोने की कोशिश करने लगा. अचानक से बजी मोबाईल की घंटी ने एक और बार नींद उदा दी. कौन सुबह-सुबह परेशान कर रहा है सोचते हुए फोन उठाया और झल्ला कर हेलो कहा.
“मैंने तुम्हें परेशान तो नहीं किया. आपकी बहुत याद आ रही थी. सोचा आपको फोन ही कर लूँ. दस दिन से कोल्कता मैं थी कल ही आई हूँ”. स्वस्तिका की आवाज मेरे कानों में पहुंची.
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