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बहरू काका!

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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चूड़ी ले लो, हरी, नीली, लाल, हर रंग की चूड़ी ले लो. नव कनिया के लिए लाल है, छोटी बच्चियों के लिए कमाल है, कांच की और लाह की दोनों तरह की चूड़ी ले लो. भरी दोपहर और चिलचिलाती धुप में अपनी साईकिल पर चूड़ियों के झोले को लटकाए चूड़ी वाले बहरु काका, आवाज़ लगाते हुए गाँव में घूम रहे थे. वैसे तो उनका नाम रहीम है लेकिन सुनाई कम देने के कारण उन्हें जानने वाले, बहरू काका कह कर बुलाते हैं उन्हें. उम्र यही कोई ७०-७५ साल, लटका हुआ चेहरा, और पान से लाल मुंह, यही है उनकी पहचान. पिछले २०-२५ वर्षों से हमारे गाँव में हर घर में चूड़ियों की मांग को पूरा करने का काम, बहरू काका ही करते आये हैं. जब भी आते हैं कोई न कोई नयी कहानी उनके पास जरुर होती है. गाँव का कोई भी ऐसा परिवार नहीं जो उन्हें नहीं जानता और जिस घर की नमक-हल्दी की खबर हमारे बहरू काका को नहीं है.

रिम्मी दीदी को दिल्ली से आये हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे. रिम्मी दीदी और बहरू काका की बहुत बनती थी. मुझे आज भी याद है जब दीदी छोटी थी, चूड़ियों के लिए अक्सर रोती थी. बच्चियों को चूड़ियों से क्यूँ प्यार होता है, समझ नहीं पाया मैं पूरी तरह. हाँ, चूड़ी के चटकीले रंग उनकी आँखों को भाते होंगे. हमेशा की तरह उसदिन भी बहरू काका, साइकिल पर चूड़ियों को लटकाए, आवाज़ लगाते हुए, अपनी ही धुन में जा रहे थे. उन्हें इस बात का थोडा भी ज्ञान नहीं था की रिम्मी दीदी, उनके पीछे चलते-चलते, काफी दूर निकल आई है. अचानक से उनकी नज़र पीछे घूमी, ये क्या चटक रंगों में लिपटा एक फूल, देखते ही उन्होंने अपनी साइकिल रोक दी.

“बेटा कौन हो तुम, मेरे पीछे क्यूँ आ रही हो?”, बहरू काका ने रिम्मी दीदी को गोद में उठाते हुए कहा.

रिम्मी दीदी ने अपने बारे में उन्हें जब बताया तो वो हँसते हुए कहने लगे “तुम्हारी माताजी ने तो तुम्हारे लिए सतरंगी चूड़ी ली है, तुम मेरे पीछे आ गयी. तुम्हारी चूड़ी तो कोई और ले लेगा”.

ये सुनते ही रिम्मी दीदी रोने लगी. बहरू काका, उसे दुलारते हुए उठाकर साइकिल पर बिठाकर घर ले आये. घर पहुंचकर उन्होंने छोटी-छोटी और रंग-बिरंगी चूड़ी देकर, उस बालमन का दिल जीत लिया. रिम्मी दीदी और बहरू काका की ये दोस्ती उस समय जो शुरू हुई तो फिर स्कुल, कोलेज को पार करती हुई, रिम्मी दीदी की शादी तक बिना किसी अवरोध के चलती रही.

अभी ६ साल पहले ही रिम्मी दीदी की शादी हुई. बहरू काका के घर जाकर, काकी को भी बुला लायी थी रिम्मी दीदी. बहरू काका के कोई बच्चा नहीं था. घर पहुंचते ही काकी ने नम आँखों से मेरी माँ को कहा, दीदी, पिछले २० वर्षों में इनको कभी रोते नहीं देखा. न भूख से, न गरीबी से, मेहनत और लगन से हमेशा काम करते रहे. मैंने तो रिम्मी को आज पहली बार अपनी आँखों से देखा है, लेकिन मियां जी की बातों में मैंने उसे बचपन से जवानी तक कदम रखते महसूस किया है. जब से छुटकी की शादी की बात सुनी है इन्होने, कभी इनकी आँखें सूख नहीं पायी. हमारे तो कोई औलाद नहीं, छुटकी की शादी में हमें बुलाकर आपने बहुत बड़ा एहसान किया है.

कन्यादान के समय, माँ ने कुछ ऐसा किया की सब लोग हतप्रभ रह गए. बाबूजी जब कन्यादान को आगे आये तो माँ ने बहरू काका को भी साथ लेने को कहा. बाबूजी और बहरू काका ने साथ-साथ कन्यादान किया. एक रिश्ता जो कभी सिर्फ भावनाओं के साथ जुदा था, आज संस्कारों के साथ भी जुड़ गया. रिम्मी दीदी की विदाई पर, छोटे बच्चे की तरह रोते बहरू काका को देख कर, रिम्मी दीदी का उन्हें गले लगाना. गाँव के सभी लोगों को आज भी याद है.

अब सब बदल गया है. बहरू काका की बूढी हड्डियाँ अब जवाब दे रही हैं. थकी हुई आँखें इस बात को बता रहे हैं की उनका अब बंद होने का समय आ गया है. समय के इस चक्र में, घुमते हुए, कभी भी वो ममतामयी आँखें बंद हो सकती हैं. रिम्मी दीदी आज दिल्ली जा रही है. बहरू काका उससे मिलने आये हैं.

बातों ही बातों में रिम्मी दीदी ने बहरू काका को बताया की उसकी एक बेटी भी है. ६ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया था. तभी मिठ्ठी, रिम्मी दीदी की बेटी खेलते हुए बाहर आई. बहरू काका ने उसे देखा तो बस देखते ही रह गए. शायद अपने अतीत में चले गए थे. याद करने की कोशिश कर रहे थे की रिम्मी दीदी भी तो कभी बच्ची थी. पुरानी बातें याद कर उनकी आँखें बरबस ही भर आयीं.

” बेटे आपका नाम क्या है? मुझे जानते हो आप”, मिठ्ठी को गोद में उठाकर दुलारते हुए उन्होंने कहा.

मिठ्ठी, जो किसी अंजन को देखते ही डर जाती थी, बहरू काका की गोद में खिलखिलाकर हंस रही थी. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, फिर बात समझ आई. रिश्ता तो है इनदोनों का, रिम्मी दीदी का ही तो एक अंश थी मिठ्ठी. अपने बहरू काका को कैसे नहीं पहचानती वो. बहरू काका ने मिठ्ठी को अपने झोले में उपलब्ध सबसे खुबसूरत चूड़ी को दिखाते हुए उससे पूछा, मिठ्ठी रानी ये चूड़ी पहनोगी? मिठ्ठी को चूड़ी पहनाकर काका जाने लगे. मिठ्ठी जोर-जोर से रोते हुए उनके पैरों से लिपट गयी.

बहरू काका ने जाते हुए रिम्मी दीदी की तरफ देखा और कहा ” छुटकी, हमारा उधार चुकता हो गया. अब शायद भेंट न हो. तुम्हारी बेटी और तुम्हारे मस्तिष्क की स्मृतियों में मैं हमेशा रहूँगा.”

मैं बरामदे पर खड़ा कभी रिम्मी दीदी की भीगी पलकों को निहार रहा था तो कभी बहरू काका के बोझिल क़दमों को. इस स्वार्थी दुनिया में कभी-कभी कुछ ऐसे रिश्ते बन जाते हैं जिनका कोई नाम नहीं होता, जिनका कोई अंजाम नहीं होता. फिर भी इन रिश्तों के बिना ज़िन्दगी जैसे अधूरी सी ही रहती है.

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