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मतज्ञान(व्यंग्य)

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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बिहार में मतदान हुआ और मुझे मतज्ञान हुआ. इस मतज्ञान ने हमरे आँखों पर चढ़ा हुआ चश्मा उतार दिया. अरे हम बात करते हैं अखंड भारत की लेकिन इहाँ तो बात बात पर लोग विभाजित हो जाते हैं. अब ई बार के चुनाव से पहले का हाल तो हमको नहीं पता भैया, लेकिन हम जो देखे हैं इस चुनाव में उ हमरे विश्वास का धज्जी उड़ा दिया. अब आप ही सोचिये न, जब आपको ई पता चले की आप और हम खाली कन्धा पर मुंडी रख के टहलने वाले जानवर हैं और हमरे और आपके मत और भविष्य का फैसला दू चार ठो ठीकेदार और टुटपुंजिया गुंडा करे तो कैसा लगेगा? बुरा लगेगा न, हमरे साथ भी ऐसा ही हुआ. जब हम देखे की चुनाव में अभी भी लोग जात-पात को ध्यान में रखकर वोटवा गिरता है तो हम सोच लिए की सच्चाई पता लगा कर रहेंगे. अरे भाई हमरा मत देश का मत है, कौनो आलू-भाता तो है नहीं की कोई भी आये और मोल लगा दे.
चुनाव के गणित को जानने के लिए हम एक ठो पार्टी के सपोर्ट में उतर गए. हमरे गाँव के दू-चार ठो ठीकेदार दुसरे पार्टी का परचार कर रहे थे. हमरा सपोर्ट करना था की गाँव में भूचाल आ गया. ई कैसे हो गया, अपने गाँव में ई दूसरा झंडा कैसे लग गया. सब गुंडा पार्टी और ठीकेदार मिलके हमरे लिए मीटिंग किया. हम तो चाहते ही यही थे. कर लो मीटिंग, बेटा रोड का ठीकेदारी करते हो तो वही करो, ई वोट का ठीकेदारी काहे करते हो. साला हमारा मन हम राहुल को वोट करें या की लालू को, अब नीतीश का विकास हमको पसंद है या की दलित महादलित का खेला हम पर छोड़ दो. तुम हमरे पालनहार हो का. उपरवाले पालनहार का तो सुनबे नहीं किये आ तुम्हारा सुनते हैं.
ई तो था हमरे मतज्ञान का इंट्रोदक्शन, अरे इतने में कह रहे हैं की हम सब समझ गए, अरे आगे तो सुनिए. आपके शहर में क्या होता है ई हमको पता नहीं लेकिन हियाँ छोटा जगह पर ही असली राजनीति होता है. वैसे भी भारत अभियो गाँव में ही बस्ता है. तो ऐसे ही प्रचार-प्रसार के लिए हम क्षेत्र में गए. गए क्या ऐसा भारत देखा जो हम सपने में भी नहीं सोचे थे. मुसलमानों की बस्ती में गए तो विधायक जी मुस्लमान के हित की बात करते नजर आये, हिन्दुओं द्वारा उनपर हुए अत्याचार का उन्होंने जमकर विरोध किया और वादा किया की अल्पसंख्यकों को उनका हक़ दिया जाएगा. अब साला हमरे समझ में ये नहीं आया की उ का बोल रहे हैं. अरे भाई, ई भारत का भविष्य काहे बर्बाद कर रहे हो. साला हमलोग साथ मिलके रहना चाहते हैं और आप सफ़ेद कुरते वालों को हमरा साथ रहना पसंद नहीं आ रहा है.
हुआं से हमलोग दलित की बस्ती में पहुंचे. साला जिनगी में पहली बार ब्रह्मण कुल में जनम लेने का अफ़सोस हुआ हमको. ई और बात है की हम आज तक ई समझ नहीं पाए की ब्रह्मण, कायस्थ, क्षत्रिय, दलित, हरिजन, महादलित में अंतर का है. एके जैसन तो दिखते हैं सब. हमको दू-चार ठो लोग जानते थे वहां. साला यहीं मिस्टेक हो गया. इतना गाली पड़ा की का बताये. ई बभना को काहे साथ ले के घूम रहे हैं, ई बार कौनो बभना नहीं. हम सोचे, साला कैसा दिन देखने को मिला है, साला हियाँ किसी को भारत की पड़ी ही नहीं है. सब बिहारी, मराठी, दलित, महादलित, बाभन, यादव हैं, साला एको ठो हिन्दुस्तानी नहीं दिख रहा है. अब समजे का ई हाल है तो विकास का हुआ, जातिवाद का याकि आपसी खटास का.
बहुत सोचे, कौनो उपाय नहीं सुझा, साला भगवन को बोले की गान्धिये बना दो हमको, लेकिन उहो हमरा बात नहीं सुना. वैसे भी गांधी को पूछता कौन है, खाली खादी पहनते हैं ई नेता लोग. क्षेत्र का दौरा करने के बाद नेता जी ने कार्यकर्ताओं की बैठक की, माफ़ कीजियेगा, कार्यकर्ता नहीं चमचों और पिथ्थुओं की बैठक की. वोटवा कैसे मिलेगा ई बात पर खूब घमर्थन हुआ. अंत में फैसला लिया गया की वोटवा जुटाने का काम वोटवा के ठीकेदार को दे दिया जाए. हमरे यहाँ के कार्यकर्ता का मतलब है दलाल. जनता और नेता के बीच का दलाल. सो भैया, नेता जी का कहना था की सारे दलाल वोट का दाम लगाने लगे. अब जब वोट का दाम लगा तब जाके हमरा दिमाग खुला, की बेरोजगारी इतना काहे है. अरे भैया सबको नौकरी दे देंगे तो नोट से वोट कैसे खरीदेंगे. बेरोजगारी ज्यादा रहेगी तभी तो लोगों को तंगी होगी और तभिये वोटवा बिकेगा एक-आध सौ में. आ ई जो देग-देग पर दारु का ठेका भी वोत्वे के जुगार में खुला है. सबको शराबी बना दो, लोग शाराब की एक बोतल के लीये बहु-बेटी बेच देते हैं और हियाँ तो मामूली से एक वोट का सवाल है.
सभा समाप्त हुई और सारे दलाल वोट खरीदने में जुट गए. अब जिस पार्टी का दलाल जितना बढ़िया होगा उसके जीतने का चांस उतना ही ज्यादा होगा. खैर, दलाल किस पार्टी का बढ़िया है ई बात तो हमको पता नहीं चला लेकिन हमरे पार्टी के दलाल ने ब्राह्मण से कहा की सब दलित को ई बार उठा के बाहर फेंक देंगे, दलित से कहा की साला बभना को गद्दी से दूर रखना है, मुस्लिमों को उनपर हो रहे अत्याचार, जो की आज तक नहीं हुआ, से निजात दिलाने का वादा किया. साला समझ में नहीं आया हमरे की हमरे नेता लोग जोड़ने के बदले तोड़ने का काम काहे कर रहे हैं. सबको दारुबाज और धोखेबाज बना दिया. साला इस देश का तो लोटिया डूबा ही हुआ है. लेकिन हम का करें, हम तो ई भी नहीं कह सकते की हमरे बाप का क्या जाता है. अरे कैसे नहीं जा रहा है, हमरे बाप ने जो हिंदुस्तान दिया था हमको उसका माँ-बहिन कर दिया हमने. उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम करके दिया और हमने उसमें दस चाँद लगा दिए. बाभन-पासवान, यादव-क्षत्रिय, कायस्थ-दलित, मुस्लिम-महादलित. साला और कितना विभाजन करोगे. हे भगवान् थोडा ताकते दे देते हमको तो हम ई उचक्का सब का वात लगा देते. उ भी नहीं दिए. ऊपर से ई मतज्ञान दे दिए हो. साला अब मतों देने का मन नहीं कर रहा है.
उधर विपक्षी खेमे के कुछ दलाल नाराज हो गए. अरे हो भी क्यूँ नहीं, अब पार्टी को कोई थोड़े ही सपोर्ट करता है, फायदे को सपोर्ट करते हैं लोग. खुले आम अपने ही नेता को गालियाँ दे रहे दलालों से जब हमने पूछा भैया कल तक गुण गाते थे अब क्यूँ नहीं? कहा गया, उन्होंने ब्राह्मणों को गाली दी और कहा की वो उनके मत से नहीं जीतते हैं, अरे भाई तो गलत क्या है. कहने दो. तुम इतना दिमाग अगर सही प्रत्याशी के चुनाव में लगाते तो ये दिन नहीं देखना पड़ता. धत तेरी की, सही प्रत्याशी कहाँ से लाएगा बेचारा, सारे भेदिये ही तो हैं चुनाव मैदान मैं. सोच कर हम चुप हो गए. चुनावी गणित का जोड़-घटाव बहुत कठिन है भाई. इससे बढ़िया होता की कलार्क की तैयारी करते. कम से कम बेरोजगारी तो दूर होती. खैर, जोड़-तोड़ जोरों पर था, हर पार्टी हर क्षेत्र के जनप्रतिनिधि से मिल रहा था. हमरा मतलब मुखिया, वार्ड पार्षद वगैरह-वगैरह. सब जगह सब पार्टी को ईहे आश्वासन मिला की उ लोग उनके साथ हैं. साला सबके साथ अगर ई हिये हैं तो विरोध किसका कर रहे हैं. हमको सब के सब मिले हुए लगे. साला चुनाव भी दिखावे लगा.
रात के अँधेरे में वोटों की खरीद-फरोख्त चरम पर थी. अब हमरे जैसा आम आदमी कर भी क्या सकता था. दबंग पार्टी के विरोध के कारण धमकियाँ मिल रही थी सो अलग. हमने भी सोचा चलो कोई बात नहीं, कम से कम मतज्ञान तो मिला. देखते-देखते महाकुम्भ, माफ़ कीजियेगा मतदान का दिन भी आ गया. सारे दलाल, बूथ के दलाल स्ट्रीट पर खरे हो गए. वोटरों को रिझाने के लिए रिक्शे किये गए, अलग-अलग जाती के दलाल इकठ्ठे किये गए. साला कमल का मतदान है. पहले बूथ लुटा जाता था अब दलाली होती है. फर्क कहाँ आया है. रिक्शे पर मतदाताओं को बिठाये दलाल बार-बार उन्हें नंबर बता रहे थे. २ नंबर याद है न चाचा, चची, २ नंबर याद रखियेगा. सब मिलेगा. बस बटन दबा दीजिये. रास्ते में भी दलाल लोग दो नंबर की रट लगाये जा रहे थे.
अब मतदान ख़तम हो गया था और मतज्ञान के आखरी अध्याय की तरफ हम बढ़ चले थे. शाम होते ही सारे लोग नेता जी के पास इकठ्ठे हो गए. सब ने अपनी दलाली की डीटेल्ड लिस्ट नेता जी को पेश की. फलने बूथ पर इतना ब्रह्मण वोट, इतना दलित और इतना मुसलमान. हर बूथ का ब्यौरा दिया गया. और नेता जी आश्वस्त होकर पसर गए. और इस तरह से चुनावृपी महाकुम्भ समाप्त हो गया. लेकिन इस महाकुम्भ में जो मतज्ञान मुझे मिला उससे एक बात साफ़ हो गयी की बिना क्रांति के कुछ नहीं हो सकता. जब तक देशव्यापी आन्दोलन नहीं होगा, ये दलाल और खादी वाले गुंडे हमें यूँही नोचते रहेंगे.

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