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मेरा गाँव.

मैं कवि नहीं हूँ!
मैं कवि नहीं हूँ!
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सुनहरी धुप मैं, अनूठी रात मैं,
जहाँ तारे धरा पर आते हैं,
जहाँ बदल फुल बरसते हैं,
जहाँ की हर बात निराली है,
जहाँ की मिटटी थंधक देने वाली है,
जहाँ नदियों का गीत है,
जहाँ बागों में कोयल का संगीत है,
जहाँ धुप में भी लगे है मुझे छाँव,
ऐसा अनूठा और अलौकिक है मेरा गाँव.

जहाँ बाग़ में बालाएं अठखेली करती हैं,
जहाँ दादी हर सुबह रामायण का पाठ पद्धति है,
जहाँ के हर सुबह में मंदिर के शंख की आवाज़ है,
जहाँ हर शाम को मस्जिद में खुदा का अलग अंदाज़ है,
जहाँ दादाजी के पैरों में आज भी शोभे खराँव,
ऐसा अनूठा और अलौकिक है मेरा गाँव.

जहाँ के स्त्रियों के चेहरे पर आज भी लाज की गरिमा भाति है,
जहाँ के पुरुषों को आज भी, शर्मों-हया में लिपटी नारी ही लुभाती है,
जहाँ एक-दुसरे की सहायता को लोग तत्पर रहते हैं,
जहाँ अतिथि को लोग आज भी देवता कहते हैं,

अब अपने गाँव के बारे में क्या तुम्हें में बताऊँ,
लिखूं कोई कविता या गीत कोई गाऊं,
जहाँ चौपाल पे तन को थंधक देती है आज भी पीपल छाँव,
ऐसा अनूठा और आलौकित है मेरा गाँव.

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